पृष्ठ:शशांक.djvu/१४४

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(१२४ ) झगड़ा हुआ। उसी हुल्लड़ में मैंने दूर से छिपकर उसपर बाण चलाया। वह गिर पड़ा। उस भीड़-भाड़ में किसी ने मुझको या उसको न देखा। वह तारा मंदिर के सामने अचेत पड़ा था। अँधेरे में जब उसके अनुचर उसे चारों ओर हूँढ़ रहे थे, तब मैंने उसके पास जाकर देखा कि वह जीता है, और चोट ऐसी नहीं है कि वह मर जाय । मैंने झट देवी के हाथ का खड्ग लेकर उसके हाथ और पैर की नस काट दी। असह्य पीड़ा से वह छटपटाने लगा, घोर यंत्रणा और रक्त- व्याकुल होकर वह क्षीण कंठ से बार-बार जल माँगने लगा। उसका रुधिर देख देखकर मैं आनंद से उन्मत्त हो रहा था। उसकी बात पर मैंने कुछ भी ध्यान न दिया। इस प्रकार एक महाशत्रु का मैंने वध किया ।" 9 स्राव से इस भीषण हत्या की बात सुनकर तरला प्रतिमा के पीछे बैठी-बैठी काँप उठी । बहुत देर तक चुप रहकर शक्रसेन ने कहा "बंधुगुप्त ! तुम मनुष्य नहीं राक्षस हो । किसने बौद्धसंघ में लेकर तुम्हें धर्म की दीक्षा दी?" बंधु-वज्राचार्य ! अब उस बात को मुँह पर न लाओ। बहुत दिनों तक मैं बराबर यही स्वप्न देखता कि तारामंदिर के सामने पड़ा वह बालक मृत्युयंत्रणा से तड़प और चिल्ला रहा है और मैं रक्त देख देखकर नाच रहा हूँ। पर जब से सुना है कि यशोधवल फिर आया है, तब से इधर नित्य रात को देखता हूँ कि मैं इसी मंदिर के द्वार पर पड़ा मृत्यु को घोर यंत्रणासे छटपटा रहा हूँ और रक्त से डूबी तलवार हाथ में लिए यशोधवल आनंद से नाच रहा है आधे दंड तक तो दोनों चुपचाप रहे । फ़िर बंधुगुप्त बोला "वज्रा- चार्य ! चलो संघाराम लौट चलें, मंदिर का यह सन्नाटा देख मेरा जी दहल रहा है ।" दिया बुझाकर दानों मंदिर के बाहर निकले।