पृष्ठ:शशांक.djvu/१४५

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(१२५) प्रतिमा की ओट में देशानंद अब तक थरथर काँप रहा था। बंधुगुप्त और शक्रसेन के चले जाने पर तरला बोली "बाबाजी! अब बाहर निकलो ।” हाथ पर सिर पटककर देशानंद बोला “तरला, अब प्राण बचता नहीं दिखाई देता, तुम्हारे प्रेम में मेरे प्राण गए।" तरला तो क्या यहीं बैठे बैठे प्राण दोगे? देशानंद हताश होकर बोला “चलो, चलता हूँ।" दोनों मंदिर के बाहर आ खड़े हुए। तरला ने देखा कि बुड्ढा बेतरह डरा हुआ है। उसे ढाढ़स बंधाने के लिए उसने कहा “तुम इतना डरते क्यों हो ? ये सब तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकते । तुम यहाँ से भाग चलो, तुम्हें मैं ऐसे स्थान में ले जाकर छिपाऊँगी जहाँ ये जन्म भर ढूँढ़ते मर जायँ तो भी न पा सकें।" देशानन्द का जी कुछ ठिकाने आया । वह अधीर होकर कहने लगा तब फिर यहाँ ठहरने का अब काम नहीं, चलो मागें ।" तरला ने कहा, "घबराओ न, मेरा थोड़ा सा काम है, उसे करती चलूँ" देशा० -तुम्हारा अब कौन सा काम है? तरला-जिनानंद से एक बार मिलकर कुछ कहना है । देशा०-जिनानंद तो इस समय संघाराम में बन्द होगा । वहाँ तुम्हारा जाना ठीक न होगा। यहीं रहो, मैं अभी उसे बुलाए लाता हूँ।' देशानंद गया । तरला ने मन ही मन सोचा, चलो, अच्छा हुआ वह मंदिर की ओट में अँधेरा देख छिप रही। थोड़ी ही देर में जिनानंद को लिए देशानंद आ पहुँचा और तरला से बोला 'जो कुछ काम हो जल्दी निबटा लो। जिनानंद देर तक वाहर रहेगा तो भिक्खुओं को संदेह होगा ।' बाबा जी ! तुम थोड़ा मंदिर के भीतर हो रहो। कुछ गुप्त बात है। तरला