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पृष्ठ:शशांक.djvu/१४६

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(१२६) देशानंद मंदिर के भीतर गया । तरला ने किवाड़ बन्द कर दिए और जिनानन्द से कहा "भैया जी ! मुझे पहचाना ? मैं वही तरला हूँ। तुम्हें छुड़ा ले चलने के लिए आई हूँ। अब और कोई बात न पूछो । चुपचाप जो जो मैं कहती हूँ, करते चलो।" जिनानंद वा वसुमित्र मुँह ताकता रह गया । तरला ने मंदिर के द्वार पर जाकर धीरे से पुकारा "बाबा जी !"। उत्तर मिला “क्या है।" "अपने वस्त्र बाहर निकाल दो, मैं उन्हें पहनूंगी। यदि तुम भिक्खु के वेश में रात को बाहर निकलोगे तो लोग तुम्हें पहचान जायँगे।" देशानंद ने एक एक करके सब वस्त्र मंदिर के बाहर फेंक दिए । तरला ने वसुमित्र से वेश बदल डालने के लिए कहा। वसुमित्र ने देशानंद के वस्त्र पहन लिए और अपने वस्त्र उतारकर तरला के हाथ में दे दिए । तरला ने अँधेरे में भिक्खु का वेश धारण किया और अपने वस्त्र मंदिर के भीतर फेंक दिए और देशानंद से उन्हें पहनने को कहा। देशानंद ने मंदिर के भीतर ही भीतर तरला के सब वस्त्र पहन लिए । मंदिर के भीतर जाकर तरला ने अपने सब-गहने भी उसे पहना दिए और कहा “तुम यहीं चुपचाप बैठे रहो, मैं अभी आती हूँ।" देशानद अँधेरे में बैठा रहा । तरला ने बाहर आकर मंदिर के किवाड़ लगा दिए और कुंडी भी चढ़ा दी। यह सब कर चुकने पर वसुमित्र को लेकर वह चल खड़ी हुई और देखते देखते अँधेरे में बहुत दूर निकल गई।