पृष्ठ:शशांक.djvu/१४८

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(१२८) नारायण०- लौट आए। अलिंद के सामने एक और पालकी आई थी जिसपर से उतरकर नारायण शर्मा दंडधर से कुछ पूछ रहे थे। विनयसेन ने ज्योंही जाकर उन्हें प्रणाम किया, उन्होंने पूछा "क्यों भाई विनय ! आज यह असमय की सभा कैसी ? कुछ कारण ऐसे आ पड़े कि मुझे आने में बहुत विलंब हो गया ।" विनय०-सम्राट और यशोधवलदेव दो घड़ी से बैठे आसरा देख रहे हैं और अब तक सब लोग नहीं आए । क्षण भर हुआ कि महामंत्री जी आए हैं और अब आप आ रहे हैं। महाराजाधिराज की आज्ञा से सब लोगों को संवाद नहीं दिया गया। -और कौन कौन आवेंगे? विनय०-महाबलाध्यक्ष हरिगुप्त । नारायण-रामगुप्त भी नहीं ? विनय -मैं तो समझता हूँ नहीं, पर ठीक कह नहीं सकता । -अच्छा, चलो। दोनों प्रासाद के भीतर घुसे । इतने में एक भिखारी आकर द्वारपाल से पूलने लगा "क्यों भाई ! प्रासाद में आज भिक्षा मिलेगी ?" द्वार- पाल ने कहा "नहीं।" भिखारी-तो फिर कहाँ मिलेगी? द्वार०-आज न मिलेगी। भिखारी इस उचर से कुछ भी उदास न होकर आँगन से होता हुआ धीरे-धीरे चला गया। अलिंद के एक खंभे की आड़ से एक दंडधर उसे देख रहा था। उसने चट बाहर आकर पूछा “वह कौन था और क्या कहता था ?" द्वार०-एक भिखमंगा था, भिक्षा के लिए आया था। दंड-कुछ पूछता था ? नारायण.-