पृष्ठ:शशांक.djvu/१४९

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( १२६ ) द्वार-नहीं। दंड-देखने में वह भिक्खु ही सा लगता था। द्वार-अच्छी तरह देखा नहीं । दंड०-कोई आकर कुछ पूछे तो बहुत समझ बूझकर उत्तर देना। द्वारपाल ने अभिवादन किया। इसी बीच में एक अश्वारोही आँगन में आ पहुँचा। उसे देखते ही एक दंडधर जाकर विनयसेन को बुला लाया । द्वारपालों और दंडधरों ने प्रणाम किया। विनयसेन अभि- वादन करके घोड़े पर से उतरे हुए व्यक्ति को अंतःपुर के भीतर ले गए। इतने में एक द्वारपाल उसी भिखारी का हाथ पकड़े हुए अलिंद के नीचे आ खड़ा हुआ और अलिंद के एक द्वारपाल से पूछने लगा "महाप्रतीहारजी कहाँ है ?” द्वारपाल बोला "महाबलाध्यक्ष के साथ अंतःपुर में गए हैं।" पहला द्वार०-अच्छा किसी दंडधर को बुला दो। दूसरा द्वार०-क्यों, क्या हुआ ? पह, द्वार०-यह मनुष्य आड़ में छिपकर राज कर्मचारियों की गतिविधि देख रहा था, इसीसे इसे पकड़कर लाया हूँ। एक दूसरा द्वारपाल जाकर पूर्वोक्त दंडधर को बुला लाया। उसने आते ही पूछा “यही न भिक्षा माँगने के लिए आया था ?" दूस० द्वार०-हाँ। दंड-इसे क्यों पकड़ लाए हो ? ० द्वा०-यह छिपकर महाधर्माध्यक्ष और महाबलाध्यक्ष की गतिविधि देख रहा था, इसीसे इसे पकड़ रखा है। दंड-बहुत अच्छा किया । इसे बाँध रखो; मैं अभी जाकर महा- प्रतीहार को संवाद देता हूँ।