पृष्ठ:शशांक.djvu/१५५

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अपने ऊपर लेता हूँ। किंतु हम सब लोग अब वृद्ध हुए, अधिक दिन इस संसार में न रहेंगे। अपने पिता के पीछे तुम्हीं इस सिंहासन पर बैठोगे। तुम्हारे ही ऊपर राज्यभार पड़ेगा; इसलिए तुम्हें अभी से राज्यकार्य की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हारी सहायता से हम लोगों का परिश्रम भी बहुत कुछ हलका रहेगा । आज से तुम्हें राज्यकार्य का व्रत लेना पड़ेगा।" महानायक की गोद में बैठे बैठे युवराज बोले "यदि पिता जी आज्ञा देंगे तो क्यों न करूँगा?" इतना कहकर वे पिता का मुँह ताकने लगे । सम्राट ने कुछ उदास होकर कहा "शशांक ! सब की यही इच्छा है कि आज से तुम साम्राज्य के कार्य की दीक्षा लो। अतः बालक होकर भी तुम्हें यह भार अपने ऊपर लेना पड़ेगा। यशोववल ही तुम्हें दीक्षित करेंगे, तुम सदा इन्हींकी आज्ञा में रहना ।" यशोधवल का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने फिर कहना आरंभ किया-“साम्राज्य की रक्षा के लिए मैंने चार प्रस्ताव किए थे, प्रथम-राजस्व संग्रह की व्यवस्था; द्वितीय प्रांत और कोष्ठ संरक्षण; तृतीय--अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का पुनर्विधान और चतुर्थ- वंगदेश का अधिकार | जब पहले तीन कार्य सुसंपन्न हो लेंगे तब चौथे में हाथ लग सकता है, उसके पहले नहीं। पर इन तीनों कार्यो के लिए बहुत धन चाहिए और राजकोष इस समय शून्य हो रहा है । अभी कार्य आरंभ कर देने भर के लिए जितने धन की आवश्यकता होगी, उतने के संग्रह का एक उपाय मैंने सोचा है। नगर और राज्य के भीतर जो बहुत से लखपती श्रेष्ठी (सेठ) और स्वार्थवाह (महाजन) हैं उनसे ऋण लेकर कार्य आरंभ कर देना चाहिए, यही मेरी समझ में ठीक होगा।" हृषीकेश -हम लोगों की इस समझ जैसी अवस्था हो रही है, उसे देखते कोई कैसे ऋण देगा ?