सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १४०) पहले तोरण के आगे विस्तृत आँगन पड़ता था जिसके उत्तर दूसरा तोरण था । जब वे दूसरे तोरण के सामने पहुंचे तब उजाला हो चुका था। दूसरे तोरण पर के प्रतीहारों ने उनकी बात सुनते ही रास्ता छोड़ दिया । यहाँ पर भी तरला को दो चार बूँद आँसू टपकाने पड़े थे। द्वितीय तोरण के आगे ही सभामंडप पड़ता था । क्रमशः धर्मा- धिकरण, अस्त्रशाला आदि को पार करके तरला और श्रेष्ठिपुत्र तीसरे तोरण पर पहुँचे । वहाँ के प्रतीहारों ने उन्हें किसी प्रकार आगे न बढ़ने दिया, कहा कि सम्राट की आज्ञा नहीं है । अंत में विवश होकर वे दोनों तोरण के पास बैठ रहे । धीरे-धीरे दिन का उजाला फैल गया । आँगन लोगों से भर गया। एक-एक करके राजकर्मचारी आने लगे। दिन चढ़ते-चढ़ते प्रतीहाररक्षी सेना का एक दल तोरण पर आ पहुँचा और रात के प्रतीहार अपने-अपने घर गए। तरला को अब भीतर जाने की आज्ञा मिल गई। तीसरे तोरण के भीतर जाकर नए और पुराने प्रासाद पड़ते थे। पश्चिम की ओर तो पुराना प्रासाद था जो संस्कार के अभाव से जीर्ण हो रहा था, चारों ओर घास पात से ढक रहा था। उत्तर ओर गंगा के तट पर नया प्रासाद था। नए प्रासाद के अंतःपुर के द्वार पर जाकर तरला के जी में जी आया, उसका उद्वेग दूर हुआ । यहाँ से अब कोई वसुमित्र को पकड़कर नहीं ले जा सकता। वह निश्चित बैठकर सम्राट का आसरा देखने लगी। तृतीत तोरण के बाहर का आँगन अब लोगों से खचाखच भर गया। नए और पुराने प्रासाद की निद्रा अभी नहीं टूटी थीं। जो दो एक आदमी आते जाते दिखाई भी देते थे वे बहुत धीरे-धीरे सँभाल- सँभालकर पैर रखते थे । तरला बैठी बैठी बहुत सी बातें सोच रही थी । सम्राट के सामने क्या कह कर शरण माँगूंगी, यही अपने मन में बैठा रही थी। यदि कहीं सम्राट ने आश्रय न दिया तो फिर क्या होगा ? वसुमित्र को लेकर मैं कहाँ जाऊँगी ? सेठ की बेटी से क्या कहूँगी ?