(१४५) दिया गया। किवाड़ खुले-सब ने विस्मित होकर देखा कि मंदिर के भीतर आचार्य देशानंद स्त्रीवेश धारण किए खड़े हैं । शक्रसेन ने आगे बढ़कर खूछा “देशानंद ! यह क्या हुआ ?" देशानंद समझे था किवाड़ खुलते ही मैं भाग खड़ा हूँगा, किंतु इतनी भीड़ सामने देख उसे भागने का साहस न हुआ। वह हताश होकर बैठ रहा। उसे चुपचाप देख बंधुगुप्त ने आगे बढ़कर पूछा “क्यों आचार्य ! कुछ बोलते क्यों नहीं ? यह वेश तुम कहाँ से लाए ?" देशा- नंद को फिर भी चुप देख शक्रसेन पुकारने लगे देशानंद, ओ देशानंद !" देशानंद ने वस्त्र से सिर ढाँक स्त्री का सा महीन स्वर बनाकर कहा मैं तरला हूँ।" इस बात पर क्रुद्ध होकर शक्रसेन ने सिर का वस्त्र हटा दिया और कहा "तरला तेरी कौन है ?" देशानंद रो पड़ा और बोला "तरला ने मेरा सर्वनाश किया ।" इस पर शक्रसेन और भी क्रुद्ध होकर पूछने लगा “तरला कौन ?" देशा०-"तरला मेरी-मेरी-" शक्र.-तुम्हारी कौन है, यही तो पूछता हूँ। देशा-तरला मेरा सर्वस्व है। इतने में पीछे से कोई बोल उठा "प्रभो ! जिनानंद कल रात को आचार्य के साथ बाहर गया, और फिर लौट कर संघाराम में नहीं आया ।" बंधुगुप्त घबराकर बोले "देखो तो जिनानंद मंदिर के भीतर तो नहीं है।" कई भिक्खु जिनानंद को ढूँढ़ने मंदिर के भीतर घुस पड़े और एक एक कोना हूँढ़ डाला। अंत में सबने आकर कहा कि नए भिक्खु जिनानंद का कहीं पता नहीं है। रोष और क्षोभ से संघस्थविर का मुँह लाल हो गया। वे देशानंद का गला पकड़ कर पूछने लगे “जिनानंद को कहाँ रख छोड़ा है, बोल, नहीं तो •अभी तेरे प्राण लेता हूँ"। देशानंद डर के मारे रोने लगा। यह देख वज्राचार्य ने संघस्थविर का १०
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