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पृष्ठ:शशांक.djvu/१६६

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(१४६ ) हाथ थाम लिया और कहा “संघस्थविर ! तुम भी पागल हुए हो ? इस प्रकार भय दिखाने से कहीं किसी बात का पता लग सकता है ?" बंधुगुप्त कुछ ठंढे पड़कर पीछे हट गए। शक्रसेन ने भिक्खुओं को संबोधन करके कहा "तुम लोग इसे पकड़ कर संघाराम में ले चलो, हम लोग पीछे पीछे आते हैं"। भिक्खु लोग स्त्रीवेशधारी देशानंद को लिए हँसीठट्ठा करते मंदिर के बाहर निकले । केवल शक्रसेन और बंधुगुप्त खड़े रह गए। सबके चले जाने पर बंधुगुप्त ने कहा "वज्राचार्य ! बात क्या है कुछ समझे ? जिनानंद क्या सचमुच भाग गया ? कितने कितने उपायों से चारुमित्र को वश में करके उसके पुत्र को संघ में लिया था, वह सब परिश्रम क्या व्यथं जायगा ?" शक्र०-क्या हुआ कुछ भी समझ में नहीं आता । पर सेठ वसु- मित्र भाग कर हम लोगों के हाथ से जा कहाँ सकता है ? जो कोई सुनेगा कि उसने प्रवज्या ग्रहण की है उसे अपने यहाँ ठहरने न देगा। पर देशानंद ने क्या किया, किसने उसे स्त्री का वेश धारण कराके मंदिर के भीतर बंद कर दिया यह सब कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। देशानंद पर इस समय बिगड़ना मत, नहीं तो उससे किसी. बात का पता न चलेगा। जिनानंद किस प्रकार भागा, देशानंद का किसने स्त्रीवेश बनाया, तरला उसकी कौन होती है, इन सब बातों का पता उसी से लेना चाहिए। बंधु०-वज्राचार्य ! कल रात को जिस समय हम लोग यहाँ आए थे मंदिर का द्वार खुला पड़ा था और देशानंद मंदिर के भीतर नहीं था। -ठीक है। तुम जिस समय कीर्तिधवल की हत्या का वृत्तांत कह रहे थे उस समय मंदिर में कोई नहीं था। मंदिर का द्वार भी , शक.- खुला था।