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पृष्ठ:शशांक.djvu/१७१

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( १५१) समय यशोधवल ने उसे सिर से पैर तक लौहवर्म से मढ़ दिया था। मंदिर में बंधुगुप्त को न पाकर युवराज और यशोधवल सेना सहित कपोतिक संघाराम की ओर चले। मंदिर से दो कोस पर, नगर के बीचो-बीच , कपोतिक संघाराम था। हरिगुप्त की आज्ञा से सेनादल ने बड़े वेग से नगर की ओर घोड़े फेंके घोड़ों की टापसे उठी हुई धूल से नगर तटस्थ राज-पथपर अँधेरा सा छा गया । संघाराम से निकलकर शक्रसेन और बंधुगुप्त बहुत दूर न जा पाये थे कि वे एकबारगी चौंक पड़े । शक्रसेन ने कहा “बंधुगुप्त ! पीछे बहुत से घोड़ों की टाप-सी सुनाई देती है ।" बंधुगुप्त ठिठककर खड़े हो गए। शब्द सुनकर दोनों ने जाना कि बहुत से अश्वारोही वेग से उनकी ओर बढ़ते चले आ रहे हैं । बंधुगुप्त ने कहा "हाँ ! यही बात है ?" शक्रसेन-तो अब छिप रहना ही ठीक है। वसुमित्र ने भागकर क्या अनर्थ किया देखते हो न । बंधु-वज्राचार्य ! जान पड़ता है यशोधवलदेव को मेरा पता लग गया है और वह मुझे पकड़ने आ रहा है । अब क्या होगा ? शक्र०-भाई, घबराओ मत । बड़ी भारी विपचि है । धैर्य छोड़ने से सचमुच मारे जाओगे, और तुम्हारे साथ मुझे भी मरना होगा। वह जो सामने ताड़ों का जंगल सा दिखाई पड़ता है चलो उसी में छिप रहें । बढ़ो, जल्दी बढ़ो । उस स्थान से थोड़ी दूर पर एक छोटे ताल के किनारे से होता हुआ राज-पथ चला गया था। ताल के किनारे छोटे बड़े बहुत से ताड़ के पेड़ थे। दोनों दौड़ते हुए जाकर उन ताड़ों की ओट में छिप रहे । देखते-देखते सवार पास पहुंच गए। सबके आगे सिंधुदेश के एक काले घोड़े पर युवराज शशांक थे। उनका सारा शरीर स्वर्ण खचित लौहवर्म से आच्छादित था; दमकते हुए रुपहले शिरस्त्राण के बाहर इधर उधर