(१५२) सुनहरे घुघराले बाल लहरा रहे थे। सूर्य के प्रकाश में लौहवर्म आग की लपट के समान झलझला रहा था। उनके पीछे महानायक यशो धवलदेव थे, वे भी सिर से पैर तक लौहवर्म से ढके थे, पर धवलवंश का चिह्न ऊपर दिखाई देता था । उसे देखते ही बंधुगुप्त काँप उठे। उन्होंने धीरे से पूछा “जान पड़ता है यही यशोधवल है"। शक्रसेन ने कहा "हाँ"। यशोधवल के पीछे दो और वावृत अश्वारोही थे जिन्हें बंधुगुप्त और शक्रसेन न पहचान सके । ताल के किनारे पहुँचने पर उनमें से एक का शिरस्त्राण हट गया। पेड़ की आड़ से बंधुगुप्त और शक्रसेन ने भय और विस्मय के साथ देखा कि वह श्रेष्ठिपुत्र था । क्रमशः पाँच पाँच सवारों की अनेक पंक्तियाँ निकल गई । वसुमित्र ने घोड़े को थोड़ा रोक टोप पहना और फिर वेग से घोड़ा छोड़ता हुआ वह सेनादल में जा मिला । पेड़ों की झुरमुट में बैठे बंधुगुप्त बाले "वज्राचार्य ! अब क्या उपाय हो ?" शक्र०- -तुम तो इसी समय वंगदेश की ओर चल दो । पाटलिपुत्र में रहना अब तुम्हारे लिए अच्छा नहीं। -तुम क्या करोगे? शक्र० -मैं यहीं नगर में रहूँगा। बंधु०-तो फिर मैं भी यहीं मरूगा । बंधु शक्र०- क्यों? बंधु०-मैं अकेला अब कहीं नहीं जा सकता । शक्रसेन ने बंधुगुप्त के मुँह की ओर देखा । वह एकबारगी पीला पड़ गया था। उन्होंने यह निश्चय करके कि अब इसे समझाना बुझाना व्यर्थ है कहा "तो फिर चलो, इसी समय चल दें ।" दोनों ताल वन से निकलकर गंगा के किनारे किनारे चले ।
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