पृष्ठ:शशांक.djvu/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १५५) करने का साहस कभी नहीं कर सकता । बंधुगुप्त यदि संघाराम में कहीं छिपा हो तो आप तुरंत उसे हम लोगों के हाथ में दीजिए, हम लोग उसे सम्राट के सामने ले जायँगे । बुद्धघोष-संघ स्थविर बंधुगुप्त ने आज इस संघाराम में पैर ही नहीं रखा । आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। यदि उन्हीं की खोज में आप आए हों, और कोई बात न हो, तो जाकर कहीं और देखिए। यशो-बंधुगुप्त यदि संघाराम में नहीं है तो आपने फाटक क्यों बंद कराए ? बुद्ध०- -अस्त्रधारी अश्वारोहियों के भय से । यशो० ro-हम लोग सम्राट की आज्ञा से बंधुगुप्त का पता लगाने के लिए संघाराम में आए हैं। हम लोगों को भीतर जाने देने में आपको कुछ आपत्ति है ? बुद्ध०-रत्ती भर भी नहीं । यशो०-तो फिर द्वार खोलने की आज्ञा दीजिए। महास्थविर की आज्ञा से द्वार खोल दिया गया । पाँच सौ सवार लेकर यशोधवलदेव, युवराज शशांक और हरिगुप्त ने संघ के भीतर प्रवेश किया, शेष पाँच सौ सवार संघाराम को घेरे रहे। एक-एक कोना हूँढ़ने पर भी जब बंधु गुप्त न मिला तब हताश होकर यशोधवलदेव प्रासाद को लौट गए। उस समय गंगा की बीच धारा में एक छोटी सी नाव बड़े वेग से पूरब की ओर जा रही थी। उसमें बैठे-बैठे शक्रसेन बंधु गुप्त से कह रहे थे "भाई ! न जाने किस जन्म का पुण्य उदय हुआ कि आज रक्षा हुई।"