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पृष्ठ:शशांक.djvu/१८२

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(१६४ ) "आँख उठाकर देखो, सूर्य को छिपानेवाले मेघ छटे दिखाई पड़ते हैं । वृद्ध सम्राट् शरीर छोड़ चुके हैं । अब जिन गोविंदगुप्त और स्कंदगुप्त ने खड्ग धारण किया है उनके हाथ निर्वल नहीं हैं । राजश्री फिर लौटती दिखाई देती है । हूणधारा रुकी जान पड़ती है, ब्रह्मावर्च में गंगा की श्वेत शैकतराशि के बीच हूणसेना की श्वेत अस्थिराशि इसका आभास दे रही है, गोपाचल के नीचे नासिकाविहीन हूणों की मुंडमाला इसका आभास दे रही है। उत्तरापथ में अब शांति स्थापित हो गई है, हूण देश से बाहर कर दिए गए हैं, स्कंदगुप्त सिंहासन पर बैठे हैं । हूण फिर आ रहे हैं, उत्तरकुरु की विस्तृत मरुभूमि हूणधारा में मग्न हो गई है, गांधार की पर्वतमाला अब उस धारा को नहीं रोक सकती। हूण फिर आ रहे हैं, कोई भय नहीं, स्कंदगुप्त ने फिर खड्ग उठाया है। उनका नाम सुनकर हूण काँप रहे हैं । पर स्कंदगुप्त रहकर ही क्या करेंगे? उत्तरापथ में विश्वासघात है, आर्यावर्त में कृतघ्नता है। हूण फिर आ रहे हैं। नागर वीरो! अपनी रक्षा के लिए उठो, देवों और ब्राह्मणों, स्त्रियों और बच्चों, मठों और मंदिरों, नगरों और खेतों की रक्षा करो"। “विश्वासघात ही के कारण आर्यावर्त्त का बहुत दिनों से नाश होता आ रहा है । आँख उठाकर देखो, साम्राज्य का सर्वनाश हो गया. भीरु और कायर पुरगुप्त सिंहासन पर जा बैठा है। हूणों ने प्रतिष्ठान दुर्ग घेर लिया है, सम्राट सेना सहित दुर्ग के भीतर घिर गए हैं, इस इतने बड़े आययावत में ऐसा कोई नहीं है जो उनकी सहायता के लिए जाय, अग्नि की लपट आकाश में उठ रही है, हूणों ने सौराष्ट्र, आन, मालव, मत्स्य और मध्यदेश में आग लगा दी है। छोटे से मगध देशे का राजसिंहासन पाकर ही पुरुगुप्त संतुष्ट बैठा है। समुद्रगुप्त का विशाल साम्राज्य तिनके के समान बाढ़ में डूब गया। प्रतिष्ठान दुर्ग के भीतर दस सहस्र सेना है, परं दो दिन से अधिक के लिए पीने का जल नहीं है । वृद्ध सम्राट् जल लाने के लिए आप निकल खड़े हुए हैं, .