( १६५) श्वेत बालू की भूमि रक्त से रँग गई है। हूणसेना ने उनपर आक्रमण किया है, अब रक्षा नहीं है । एक भारी वाण सम्राट की दहनी आँख में आकर लगा है। साम्राज्य की सेना स्वामी की रक्षा के लिए लौट पड़ी है; पर जिन्होंने वितस्ता और शतद्रु के तट पर, शौरसेन, ब्रह्मावर्त और आर्यावर्त में मान रखा था, वे अब लौटने के लिए नहीं है" । बुड्ढे का गला भर आया, आँसुओं से उसकी छाती भींग गई। उसके पास बैठा बैठा वृद्ध लल्ल भी चुपचाप आँसू गिरा रहा था । यशोधवल के नेत्र भी गीले थे । सीढ़ी के नीचे चित्रा और लतिका पड़ी रो रही थी। गीत बंद हुआ। आधे दंड तक किसी के मुंह से कोई बात न निकली। पूर्व की ओर अँधेरा छाता जाता था। देखते देखते चारों दिशाएँ अंधकारमय हो चलीं। यशोधवल ने कुमार की ओर दृष्टि फेरी, देखा तो उनका मुखमंडल पीला पड़ गया है, दोनों आँखें डबडबाई हुई हैं। वे स्थिर दृष्टि से अंधकार की ओर देख रहे हैं । यशोधवलदेव ने पुकारा “पुत्र-शशांक !” । कोई उचर नहीं । लल्ल घबराकर उठा। उसने कुमार के कंधे पर हाथ रखकर पुकारा "कुमार ! जैसे कोई नींद से जाग पड़े उसी प्रकार चौंककर वे बोले
- क्या ?" यशोधवलदेव ने पूछा “पुत्र ! क्या सोच रहे हो ?'
शशांक-स्कंदगुप्त की बात ! आप जिस दिन पाटलिपुत्र आए थे- यशो०- 10- उस दिन क्या हुआ था ? शशांक-मैंने तो सोचा कि किसीसे न कहूँगा। उस दिन एक व्यक्ति ने मुझे स्कंदगुप्त की बात सुनाई थी। यशो० -यह कौन था ? शशांक-शक्रसेन। लल्ल-यह कैसा सर्वनाश ! उसने तुम्हें कैसे देख पाया ? शशांक-तुम उस दिन कहीं चले गए थे । मैंने तुम्हें जब कहीं न