पृष्ठ:शशांक.djvu/१८७

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(१६६ ) जाता चारों ओर छिटक कर आभा सी डाल रही है। गंगा की विस्तृत धारा के हिलोरों के बीच चंद्रमा की उज्वल निर्मल किरनें पड़कर झलझला रही हैं । कुमार की नाव धारा में पड़कर तीर की तरह सन सन बढ़ती चली जाती थी। चित्रा का मुँह उदास था, वह प्रसन्न नहीं थी । सब लोग मिलकर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहे हैं, पर कुछ फल नहीं हो रहा है । चित्रा ने सुन पाया था कि युद्ध में जाने से मनुष्य मारना पड़ता है। कुमार भी जायँगे, इसकी चिंतामें वह दिन दिन सूखती जाती थी, पर पीछे यह सुनकर कि वे शीघ्र लौट आवेंगे उसका जी कुछ ठिकाने आ गया था पर आज न जाने किसने उससे कह दिया कि युद्ध में सहस्रों मनुष्य मारे जाते हैं, रक्त से धरती लाल हो जाती है। जो युद्धयात्रा वह लौटने की आशा छोड़कर जाता है। यही बात सुनकर वह रोती रोती कुमार के पैरों के नीचे लोट पड़ी और कहने लगी, मैं तुम्हें युद्ध में न जाने दूंगी। तरुणावस्था लगने पर भी चित्रा अभी बालिका ही थी उसकी बाल्यावस्था का भोलापन और चपलता जरा भी नहीं दूर हुई थी। उसकी इस बात पर सब लोग हँस रहे थे, इसीसे 'वह रूठकर मुँह फुलाए बैठी थी। कुछ काल तक इस प्रकार चुप रहकर वह एक बारगी पूछ उठी "तुम लोग क्यों युद्ध करने जाओगे ?” अनंतवा अवस्था में छोटे होने पर भी गंभीर स्वभाव के थे। उन्होंने धीरे से उत्तर दिया “देश जीतने ।" चित्रा-देश जीतकर क्या होगा? शशांक-देश जीतने से राज बढ़ेगा, राजकोष में धन आवेगा चित्रा-मनुष्य भी तो मरेंगे ? शशांक-दो तीन सौ मरेंगे।