पृष्ठ:शशांक.djvu/१९५

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( १७७) हरिगुप्त-महाराजाधिराज की आज्ञा सिर माथों पर है। पर मैं इस बात का बहुत आसरा लगाए था कि एक बार फिर यशोधवलदेव के अधीन युद्धयात्रा करूँगा। यशो०-हरिगुप्त ; तुम्हारी यह आशा थोड़े ही दिनों में पूरी होगी। हरि०-किस प्रकार, प्रभो! यशो०-अभी कई युद्धयात्राएँ होंगी। सम्राट-हरिगुप्त ! यशोधवल ठीक कहते हैं । बहुत शीघ्र इतनी अधिक चढ़ाइयाँ करनी पड़ेंगी कि उपयुक्त सेनापति हूँढ़े न मिलेंगे। वृद्ध हृषीकेश शर्मा अब तक चुपचाप बैठे थे। बुढ़ापे के कारण उन्हें अब बहुत कम सुनाई पड़ता था। जो जो बातें हुई, अधिकांश उन्होने नहीं सुनीं । वे बैठे बैठे बोल उठे “यशोधवल ! तुम लोगों ने क्या स्थिर किया, मुझे बताया नहीं" । यशोधवलदेव ने उनके कान के पास मुँह ले जाकर चिल्लाकर कहा “महाराज ने स्थिर किया है कि आठ सहस्र अश्वारोही, पाँच सहस्र पदातिक और दो सौ नावें लेकर हरिगुप्त इसी समय चरणाद्रिगढ़ की ओर प्रस्थान करें और रामगुप्त नगर की रक्षा के लिए रहें । वंग की चढ़ाई में दो सहस्र अश्वारोही भी जायँगे, क्योंकि कामरूप के राजा क्या भाव धारण करेंगे, नहीं कहा जा सकता। वृद्ध ने कई बार सिर हिलाकर कहा "बहुत ठीक, बहुत ठीक ! पर स्थाण्वीश्वर जाने के संबंध में क्या व्यवस्था की गई ?" सम्राट हरिगुप्त चरणाद्रिगढ़ जाते ही हैं, जो व्यवस्था उचित समझेंगे, करेंगे। हृषी०-प्रभो! वृद्ध की वाचालता क्षमा की जाय । स्थाण्वीश्वर की सेना के आक्रमण से देश की रक्षा करने के अतिरिक्त एक कर्चव्य और भी है । स्थाण्वीश्वराज आपके भांजे हैं, उन्होंने आपकी भगिनी १२