पृष्ठ:शशांक.djvu/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १८३) पुरुष-मल्लिका ! तुम रूठ गई। मैं क्या तुम्हारा विरह बहुत दिनों तक सह सकूँगा ? कभी नहीं। एक बरस के भीतर ही लौट आऊँगा। रमणी-तुम्हारी बात का कोई ठिकाना नहीं। पुरुष-मैं तुम्हारे सिर की सौगंध खाकर कहता हूँ कि अगली शरद पूर्णिमा तक आ जाऊँगा। इसमें रत्ती भर भी झूठ न समझना । रमणी उसको बात को अनसुनी करके दूसरी ओर मुँह फेरे बैठी थी। पुरुष काठ के एक पाटे पर बैठा था। मान दूर होता न देख वह आसन पर से उठा और रमणी की ओर बढ़ा। इतने में गली में किसी के चलने का शब्द सुनाई पड़ा। पुरुष सहमकर अपने आसन पर आ बैठा। रमणी भी अपना मुंह पुरुष की ओर फेरकर एक सैनिक ने दूकान पर आकर रमणी से कहा "मल्लिका ! मेरे यहाँ तुम्हारा जो कुछ निकलता हो उसे चुकाने आया हूँ। तुम्हारी दूकान अब तक खुली हुई है। मैं तो समझता था कि तुम दूकान बंद करके सोई होगी, मुझे बहुत पुकारना पड़ेगा।" रमणी ने हँसते हँसते कहा “देखना मल्लिका को एक बारगी भूल न जाना, कभी-कभी स्मरण करना । उधार चुकाने की इतनी जल्दी क्या थी, सबेरे आकर चुकाते।" सैनिक-मुझे रात को ही नगर छोड़कर जाना होगा। सेनापति आकर हम लोगों को तैयार होने के लिए कह गए हैं। दो पहर रात गए ही जाने की बातचीत थी, पर कई कारणों से विलम्ब हो गया। अब तीन पहर रात बीतने पर प्रस्थान होगा। रमणी-खड़े ही रहोगे ? थोड़ा बैठ न जाओ। सैनिक-बैठने का समय नहीं है; अभी और कई दूकानों पर जाना है। बैठी।