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पृष्ठ:शशांक.djvu/२०२

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(१८४) रमणी -तब फिर यहाँ आने का क्या प्रयोजन था ? जब लौट कर आते तब उधार चुकाते । सैनिक-न, न मल्लिका, रूठो मत, मैं आज बहुत हड़बड़ी में हूँ, बैठ नहीं सकता। तुम्हारा कितना निकलता है, बतलाओ । रमणी-अरे, कितना क्या ? सब मिला कर पन्द्रह-सोलह द्रम्म* होगा। सैनिक ने अपने टेंट से एक स्वर्ण मुद्रा निकाल कर फेंक दी । रमणी ने उसे दीपक के उजाले के पास ले जाकर देखा और चकित होकर बोली “अरे, यह तो दीनार है। नया दीनार । तुम कहाँ से पा गए ?" सैनिक-किसी बात की चिन्ता न करो, जाली नहीं है, राजकोष से मिला है। यात्रा की आज्ञा के साथ ही तीन मास का वेतन सब को मिल गया है। रमणी-कहाँ जाना होगा ? सैनिक-यह नहीं बता सकता; बताने का निषेध है । रमणी अपना मुँह फेरे हुए सैनिक के आगे चार द्रम्म फेंक कर बोली “अच्छा तो जाओ।" सैनिक ने कहा “जाऊँ कैसे ? तुम तो रूठी जाती हो ।" रमणी-मेरे रूठने से तुम्हारा क्या बनता-बिगड़ता है। जब तुम इतना तक नहीं बता सकते कि कहाँ जाते हो तब मेरे रूठने की तुम्हें क्या चिन्ता? सैनिक-मुझ पर इतना कोप न करो । स्थान बताने का बहुत कड़ा निषेध है, पर तुमसे तो किसी बात का छिपाव नहीं है, तुम्हारे कान में कहे जाता हूँ।

  • द्रम्म प्राचीन काल का चाँदी का सिक्का है।

+दीनार स्वर्णमुद्रा, जिसका मूल्य १५ से २० द्रम्म तक होता था।