पृष्ठ:शशांक.djvu/२१४

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(१६६) यूथिका-दुत। लजा से यूथिका के मुँह पर ललाई दौड़ गई। तरला हँसती हँसती बोली “तो क्या करोगी, न जाओगी" यूथिका-पिता जी क्या कहेंगे ? तरला-अब दोनों ओर बात नहीं रह सकती। बोलो, तुम्हारे केवट से जाकर क्या कह दूं। कह दूँ कि तुम्हारी नाव दलदल में जा फँसी है और दूसरे माँझी ने उस पर अधिकार कर लिया है ? यूथिका-तेरा सिर । तरला-क्या करोगी, बोलो न । यूथिका-जाऊँगी। तरला-मैं भी यही उत्तर पाने की आशा करके आई थी। यूथिका अपनी सखी को हृदय से लगाकर बार बार उसका मुँह चूमने लगी। अवसर पाकर तरला बोली "अरे उस बेचारे के लिए भी कुछ रहने दो, सब मुझको ही न दे डालो"। यूथिका ने हँसकर उसे एक चूसा जमाया। तरला बोली "तो फिर अब बिलंब करने का काम नहीं।" यूथिका-क्या आज ही जाना होगा ? तरला-हाँ! आज ही रात को। यूथिका-किस समय ! तरला-दो पहर रात गए। यूथिका-वे किस मार्ग से आएँगे ? जरला-अंतःपुर के उद्यान का द्वार खोल रखना, मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी। बाहर वे घोड़ा लिए खड़े .रहेंगे। घोड़े पर चढ़ सकोगी न ? यूथिका-घोड़े पर मैं कैसे चढूँगी।