पृष्ठ:शशांक.djvu/२१६

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छठाँ परिच्छेद विरहलीला तरला प्रासाद में लौट कर अंतःपुर की ओर नहीं गई, सीधे यशो. धवलदेव के भवन में घुसी। प्रतीहार और दंडधर उसे पहचानते थे इससे उन्होंने कुछ रोक-टोक न की। सम्मान दिखाते हुए वे किनारे हट गए । महानायक के विश्राम करने की कोठरी के द्वार पर स्वयं महाप्रतीहार विनयसेन हाथ में बैंत लिए खड़े थे। उन्होंने तरला का मार्ग रोक कर पूछा “क्या चाहती हो ?” तरला ने उत्तर दिया "महा नायक को एक बहुत ही आवश्यक संवाद देने जाती हूँ।" विनयसेन ने बेंत से उसका मार्ग रोक कर कहा "भीतर महाराजाधिराज हैं, अभी तुम वहाँ नहीं जा सकती।” तरला ने कहा "संवाद बहुत ही आवश्यक है।" विनयसेन ने कहा "तो संवाद मुझसे कह दो मैं जाकर दे आऊँ, नहीं तो थोड़ी देर ठहरों।" एक बार तो तरला के मन में हुआ कि विनयसेन अत्यंत विश्वासपात्र कर्मचारी हैं उनसे यूथिका की बात कह देने में कोई हानि नहीं। पर पीछे उसने सोचा कि ऐसी बात न कहना ही ठीक है | बहुत आगा-पीछा करके वह महाप्रतीहार से बोली "अप. राध क्षमा करना । संवाद बहुत ही गोपनीय है, उसे प्रकट करने का निषेध है। मैं तब तक यहीं खड़ी हूँ। जब महारान बाहर निकलें तो मुझे मुकार लीजिएगा ।" तरला एक खंभे की ओट में जा बैठी और सोचने लगी कि किस उपाय से यूथिका को बाहर. लाऊँगी और लाकर कहाँ रचूगी। बहुत देर सोचते-सोचते जब मन में कुछ ठीक न कर सकी तब वह उठ खड़ी ।