(२०४ ) देशानंद को मना लेना बहुत कठिन नहीं है। उसने एक ठंढी साँस भर कर कहा “पुरुष की जाति ऐसी हो होती है, मैं तीन से जिसे देखने के लिए मर रही हूँ वह मेरी ओर आँख उठाकर देखता तक नहीं है।" अब तो देशानंद से न रहा गया, वह मुँह फेर कर बोला "तुम-तुम-फिर कैसे ?" तरला ने वृद्ध की ओर कटाक्ष करके कहा "अब क्यों न ऐसा कहोगे ? तुम्हारे लिए मेरी जाति गई, मान गया, लोकलजा गई अब तुम ऐसा न कहोगे तो फिर कलिकाल की महिमा ही क्या रहेगी?" देशानंद चकित होकर कहने लगा “तुम क्या कह रही हो, मेरी समझ में नहीं आता। अब क्या बंधु गुप्त की गुप्तचर बन कर मुझे पकड़ाने आई हो ?" तरला ने देखा कि देशानंद का मान कुछ गहरा है। अब तो उसने स्त्रियों का अमोघ अस्त्र छोड़ा। अंचल से वह अपनी आँखें पोंछने लगी। देखते-देखते उसके नील कमल से नेत्रों में जल झलकने लगा। देशानंद घबरा कर उठा और बार-बार पूछने लगा “क्या हुआ ? क्या हुआ ?" तरला ने जाना कि इतनी देर पीछे अब मान भंग हुआ। वह देशानंद की बात का कोई उत्तर न देकर रोने लगी। अब तो बुड्ढा एक बारगी पिघल गया । एक दंड पीछे जब तरला ने रोने से छुट्टी पाई तब देशानंद को उसने अच्छी तरह समझा दिया कि उसके मंदिर में बंद होने का कारण वह न यी, अदृष्ट था । तरला ने कहा "मैंने ही तुम्हें छुड़ाने के लिए दूसरे दिन सबेरे यशोधवलदेव को भेजा था । देशानंद को अपने भ्रम का पूर्ण निश्चय हो गया और वह खिल उठा। तरला ने अवसर देख धीरे से कहा “बाबाजी ! आज मैं एक बड़े काम के लिए तुम्हारे पास आई हूँ।" देशा०-कहो, कहो, क्या काम है ? तरला-बात बहुत ही गुप्त रखने की है, पर तुमसे कोई बात छिपाना तो ठीक नहीं। पर देखना किसी पर प्रकट न होने पावे । .
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