पृष्ठ:शशांक.djvu/२३१

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(२१३) देशानंद को अच्छी तरह सुझाई नहीं पड़ता था । पर प्राण जाय तो जाय देशानंद भला यह बात कभी तरला के सामने कह सकता था ? कुछ दूर चलते-चलते एक पेड़ की मोटी जड़ को न देख देशानंद फिर टकरा कर गिरा । तरला समझ गई कि बुड्ढे को रतौंधी होती है । उसने मन में सोचा, चलो अच्छी बात है। बुढ्डा रात को कुछ देख न सकेगा; सेठ की लड़की को ही राजकुमारो समझेगा । तरला देशानंद को साथ लिए प्रासाद के तोरण के बाहर हुई। यह देख देशानंद बोला "तुम अंतःपुर में तो गई नहीं ?" तरला ने हँस कर कहा “तुम्हारी बुद्धि तो चरने गई है। भला इतने लोगों के बीच मैं तुम्हें लेकर अंत:- पुर में जाऊँगी तो तुम्हारी तो जो दशा होगी वह होगी ही, मैं भी प्राण से हाथ घोऊँगी।" देशानंद सिटपिटा गया, पर फिर भी उसने पूछा "तो फिर राजकुमारी कैसे आएँगी ?" तरला ने वस्त्र के नीचे से रस्सियों की एक सीढ़ी निकाल कर दिखाई और बोली "राजकुमारी इसी के सहारे नीचे उतरेंगी।” इतने में दोनों राजपथ छोड़ कर सेठ की कोठी के पास पहुँचे । यूथिका के पिता के घर पहुँचते ही तरला पीछे की फुलवारी में घुसी वह यूथिका से फुलवारी की ओर का द्वार खोलने के लिए कह आई थी, पर पास जाकर उसने देखा कि किवाड़ भीतर से बंद हैं। देशानंद के सहारे तरला दीवार पर चढ़ी और रस्सी की सीढ़ी लटकाकर नीचे उतर गई। देशानंद रस्सी का छोर पकड़े दीवार के उस पार ही खड़ा रहा। थोड़ी देर में तरला लौट आई और बोली "बाबाजी ! तुम इस पार आओ। फुलवारी वाले द्वार पर न जाने किसने ताला चढ़ा दिया है, वह किसी प्रकार खुलता नहीं है । देशानंद दीवार पर चढ़ कर तरला के पास गया । बहुत चेष्टा करने पर भी द्वार न खुल सका । अंत में तरला बोली--"बाबाजी! तुम दीवार से लगकर उधर अँधेरे में छिपे रहो, मैं राजकुमारी के नागर को बुलाने जाती हूँ।"