पृष्ठ:शशांक.djvu/२३०

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अाठवाँ परिच्छेद राजकुमारी का अभिसार रात के सन्नाटे में तरला ने प्रासाद के बाहर निकल देशानंद की कोठरी के किवाड़ खटखटाए। देशानंद तो जागता ही था, उसने झट उठ कर किवाड़ खोले और कहा “भीतर आ जाओ ।” तरला बोली "विलंब बहुत हो गया है, अब भीतर आने का समय नहीं है। जल्दी तैयार होकर आओ।" देशानंद बाहर आ खड़ा हुआ। उसका ठाट- बाट देख तरला चकित हो गई। वह देर तक उसका मुँह ताकती रही। वृद्ध ने मजीठ में रँगा वस्त्र धारण किया था, सिर पर चमचमाती पगड़ी बँधी थी, कटिबंध में तलवार लटक रही थी और हाथ में शूल था । वृद्ध सोचने लगा कि तरला मेरे वीरवेश पर मोहित हो गई है। उसने धीरे से पूछा कुछ अच्छा लग रहा हूँ ?" तरला बोली “अच्छे तो तुम न जाने कितने दिनों से लग रहे हो। यह तो बताओ, यह सब पहनावा तुम्हें मिला कहाँ ?" देशा-कुछ मोल लिया है, कुछ महानायक ने दिया है । . तरला-रुपया कहाँ मिला ? देशा०-आते समय तुम्हारे लिए संघाराम के भंडार से धन निकाल लाया था। देशानंद तरला के साथ-साथ चलने लगा । अकस्मात् एक गहरी ठोकर खा कर गिर पड़ा। तरला ने पूछा “क्या हुआ ?" देशानंद बोला "कुछ नहीं, पैर फिसल गया था ।" पर बात यह थी कि रात को