(२१५ ) तरला- वसु०-न। तरला-इतने दिन एक साथ रहे, फिर भी नहीं पहचानते। वसु०-बताओ, कौन है ? तरला-देशानंद । वसु०-तुम कहती क्या हो ? -लौटते समय देख लेना। दोनों धीरे धीरे पैर रखते सेठ की लड़की के शयनकक्ष में गए। इधर तरला और वसुमित्र घर के भीतर गए उधर देशानंद बड़े संकट में पड़ा । तरला जब वसुमित्र को बुलाने गई थी तभी से वह मन में डर रहा था। पर तरला के सामने वह यह बात मुँह से न निकाल सका । देशानंद ने कोष से तलवार निकालकर सामने रखी, बरछे का फल देखा भाला । इससे उसके मन में कुछ ढाढ़स हुआ। पर थोड़ी देर में जो पीछे फिरकर देखा तो दो एक आम के पेड़ों के नीचे गहरा अँधेरा दिखाई पड़ा । उसके जी में फिर डर समाया। वह धीरे धीरे अंतःपुर के द्वार पर जा खड़ा हुआ। उसने फुलवारी की ओर उचक- कर देखा कि वसुमित्र का घोड़ा ज्यों का त्यों चुपचाप खड़ा है। उसके मन में फिर ढाढ़स हुआ ! उसने सोचा कि कोई भूत प्रेत होता तो घोड़े को अवश्य आहट मिलती। देखते देखते एक दंड हो गया, फिर भी तरला लौटकर न आई। उद्यान में ओस से भीगी हुई डालियाँ धीरे धीरे झूम रही थीं। पत्तों पर बिखरी हुई ओस की बूंदों पर पड़कर चाँदनी झलझला रही थी। देशानंद को ऐसा जान पड़ा कि श्वेत वस्त्र लपेटे एक बड़ा लंबातडगा मनुष्य उसे अपनी ओर बुला रहा है। उसका जी सन हो गया, उसे कुछ न सूझा । बरछा और तलवार दूर फेंक जिधर तरला और वसुमित्र गए थे एक साँस उसी ओर दौड़ पड़ा। थोड़ी दूर, पर एक गली थी
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