( २१६) n जो सीधे अंतःपुर तक चली गई थी। गली के छोर पर एक छोटा सा द्वार था जिसे वसुमित्र भीतर जाते समय खोलता गया था। देशानंद उसी द्वार से भागा भागा सेठ के अंतःपुर में जा पहुँचा। उसे कुछ सुझाई न पड़ा । अँधेरे में वह इधर उधर भटकने लगा। उधर चार वर्ष पर वसुमित्र और यूथिका का मिलन हुआ । पहले अभिमान, फिर मान, उसके पीछे मिलन का अभिनय होने लगा ! तरला द्वार पर खड़ी खड़ी उन दोनों को झटपट बाहर निकलने के लिए बार बार कह रही थी। पर उसकी बात उन दोनों प्रेमियों के कानों में मानों पड़ती ही न थी। यूयिका बीच बीच में यह भी सोचती थी कि पिता का घर सब दिन के लिए छूट रहा है। वह कभी अपनी प्यारी बिल्ली का प्यार करने लगती कभी फिर प्रेमालाप में डूब जाती । कभी पिंजड़े में सोए हुए सुए को चुमकारने लगती, कभी तरला की फिटकार सुनकर पिता का घर सब दिन के लिए छोड़ने की तैयारी करने लगती । इसी में तीन पहर रात बीत गई। नगर के तोरणों पर और देवमंदिरों में मंगलवाद्य बजने लगा। उसे सुनते ही तरला यूथिका का हाथ पकड़ उसे कोठरी के बाहर खींच लाई । वसुमित्र पीछे पीछे चला। सेठ की बेदीने आंसू गिराकर पिता का घर छोड़ा। तरला ने फुलवारी की दीवार के पास आकर देखा कि देशानंद नहीं हैं । अंतःपुर के द्वार के पास उसका भाला और तलवार पड़ी है। वसुमित्र यूथिका को चुप कराने में लगा था। तरला ने उससे धीरे से कहा "हमारे बाबा जी तो नहीं हैं !" वसुमित्र बोला "बड़ा आश्चर्य है, गया कहाँ ?" इसी समय सेठ के घर में किसी भारी वस्तु के गिरने का धमाका हुआ और उसके साथ ही वसंतू की माँ 'चोर' 'चोर' करके चिल्ला उठी। उसे सुन तरला बोली "भैया जी ! बड़ा अनर्थ हुआ। बुड्ढा
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