(२२३ ) जित करके कुछ काल के लिए शांति स्थापित की थी। सुस्थितवा के पुत्र सुप्रतिष्ठितवर्मा के राजत्वकाल में इधर गुप्तसम्राट के साथ कोई झगड़ा न था। पर वंग में युद्ध छिड़ जाने पर कामरूपराज चुपचाप न बैठेंगे, यह बात यशोधवलदेव सम्राट् से कह आए थे। मेघनाद के किनारे सारी सेना पड़ाव डाले यों ही दिन काट रही थी। यशोधवलदेव काम- रूपराज की गतिविधि का ठीक-ठीक पता पाए बिना मेघनाद के पार उतरना ठीक नहीं समझते थे। अतः कामरूपराज के प्रत्यक्ष शत्रुता- चरण का संवाद पाकर वे एक प्रकार से निश्चिंत हुए । यशोधवलदेव ने गुप्तचरों के मुँह से मुना कि सुप्रतिष्ठितवा के छोटे भाई महाराजपुत्र भास्करवा वंगदेश के विद्रोहियों की. सहायता के लिए ससैन्य बढ़ रहे हैं । अग्रगामी कामरूपसेना ब्रह्मपुत्र का पच्छिमी किनारा पकड़े जल्दी-जल्दी बढ़ती आ रही है। भास्करवा अपने द्वितीय सेनादल के साथ वंगदेश में आ पहुँचे हैं, फिर भी वहाँ के सामंतगण दूत भेज-भेजकर संधि की प्रार्थना कर रहे हैं । यशोधवलदेल ने सेनापतियों के साथ परामर्श करने के लिए मंत्रणासभा बिठाई। मेघ- जाद किनारे आम और कटहल के लंबे चौड़े वन में सेना डेरा डाले पड़ी थी। एक बड़े भारी आम के पेड़ के नीचे एक नया पटमंडप खड़ा किया गया । महानायक यशोधवलदेव, युवराज शशांक, नरसिंह- दत्त, माधववर्मा, वीरेन्द्रसिंह और अनंतवर्मा उस स्थान पर इकट्ठ हुए । यशोधवलदेव ने सबको उपस्थित दशा समझाकर पूछा “अब हम लोगोंको क्या करना चाहिए ?” युवराज ने तुरंत उत्तर दिया “शत्रु की सेना आकर विद्रोहियों से मिले इसके पहले ही दोनों पर आक्रमण हो जाना चाहिए।" महानायक प्रसन्न होकर बोले “साधु ! साधु ! पुत्र यही युद्धनीति है । पर यह तो बताओ कि दोनों दलों के मिलने के पूर्व किस उपाय से आक्रमण करके उन्हें पराजित किया जाय।"
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