पृष्ठ:शशांक.djvu/२४३

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(२२५) बहुत तर्क-वितर्क के पीछे स्थिर हुआ कि नरसिंहदत्त ही कुमार साथ यात्रा करें। उसी समय पीछे से अनंतवर्मा बोल उठे "प्रभो! मुझे भी आज्ञा दीजिए, मैं भी युवराज के साथ युद्ध में जाऊँगा।" यशोधबलदेव ने पूछा “अनंत ! तुम जाकर क्या करोगे ?" उनका इतना आग्रह देख युवराज ने उन्हें भी साथ चलने के लिए कहा। दूसरे दिन बड़े तड़के दस सहस्त्र पदातिक, आठ सहस्त्र अश्वारोही और पचास नावें लेकर युवराज ने यात्रा की । पदातिक नौसेना धीरे-धीरे चलने लगो। युवराज नरसिंहदत्त को शंकरनद के किनारे प्रतीक्षा करने के लिए कह कर अश्वारोही सेना लेकर आगे बढ़े। उस समय कामरूप की सेना सीमा लाँघ कर वंग देश के उत्तर प्रांत के गाँवों में लूट-पाट कर रही थी। पर भास्करवर्मा अब तक शंकरनद के इस पार तक नहीं पहुँच सके थे। इधर युवराज के साथ जो लोग आए थे उनमें से अधिकांश लोग गौड़ के थे और अपना सारा जीवन युद्ध में ही बिता चुके थे। शत्रुसेना को बेखटके लूट-पाट में लिप्त देख युवराज और वीरेंद्र सिंह गौड़ीय सामंतों के परामर्श के अनुसार सारी सेना लेकर उस पर टूट पड़े। कामरूप सेना इधर-उधर कई खंडों में होकर लूट पाट कर रही थी। उसके सेना- पतियों को युवराज के चलने का संवाद मिल चुका था पर वे इतनी जल्दी सीमा पार करके आ धमकेंगे इस बात का उन लोगों को स्वप्न में भी ध्यान न था । अकस्मात् इतने अश्वारोहियों से घिर कर कामरूप सेना बार-बार परास्त हुई । जो सेना बची वह लूट का सारा धन छोड़ छाड़ कर भागी। सेनापतियों ने बहुत यत्न किया पर सेना एकत्र न हुई। अंत में परास्त कामरूप सेना शंकरनद के किनारे फिर इकट्ठी हुई। पर बार बार हार खाते खाते वह हतनी व्याकुल हो गई कि वीरेंद्रसिंह १५