पृष्ठ:शशांक.djvu/२४४

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(२२६) केवल दो सहस्त्र अश्वारोही लेकर उसे शंकरनद के पार भगा आए । भास्करवर्मा ने दूत के मुँह से सुना कि स्वयं युवराज शशांक बड़ी भारी सेना लेकर कामरूप पर चढ़ाई करने आ रहे हैं । वे जल्दी जल्दी बढ़ने लगे । मार्ग में भागते हुए सैनिकों के मुँह से उन्होंने अपनी सेना के हारने की बात सुनी । शंकरनद के किनारे पहुँचकर उन्होंने देखा कि जितने घाट हैं सब पर मागध सेना डटी हुई है, बिना युद्ध के पार जाना असंभव है। एक लाख से ऊपर सेना लेकर युवराज भास्करवा ने शंकरनद के उत्तर तट पर स्कंधावार स्थापित किया। वे वीर और वीरपुत्र थे। वे उसी समय जिस प्रकार से हो नद पार करना चाहते थे। पर युद्ध- निपुण सेनापतियों के बहुत समझाने पर वे रुक गए। उन्होंने कहा कि बहुत दूर से चलकर आने के कारण सेना थकी हुई है। पराजित सेना ने आकर यह बात फैला रखी है कि मगध साम्राज्य की सेना दुर्जय है और युवराज शशांक में कोई अद्भुत दैवशक्ति है । शंकरनद बहुत चौड़ा न होने पर भी गहरा और तीव्र वेग का है। इसे पार करना सहज नहीं है । जब कि उस पार शत्रुसेना का अधिकार है तब अपनी सेना को बिना विश्राम दिए पार उतारने की चेष्टा करना ठीक नहीं है । युवराज भास्करवा तरुण होने पर भी धीर, शांत और युद्धविद्या में दक्ष थे । वृद्ध सेनापतियों की बात मान उन्होंने शंकरनद के किनारे ही पड़ाव डाला । उस पार सहस्रों डेरे खड़े होते देख युवराज शशांक समझ गए कि भास्करवा सुयोग देख रहे हैं। तीन दिन तीन रात दोनों पक्ष की सेनाएँ तट पर पड़ी एक दूसरे के आक्रमण का आसरा देखती रहीं। चौथे दिन बड़े सवेरे मागध सेना ने उठकर देखा कि उस पार डेरों की संख्या कुछ कम हो गई है। शशांक समझ गए कि कामरूप