. चली जाती थी । पाटलिपुत्र में महासेनगुप्त को अपने भांजे का सदा डर बना रहता था। वे यह जानते थे कि प्रभाकरवर्द्धन के पीछे उत्तरापथ से गुप्तवंश का रहा-सहा अधिकार भी जाता रहेगा। महासेनगुप्त के दो पुत्र थे। पुस्तक के आरम्भ में जो बालक सोन की धारा की ओर ध्यान लगाए तरंगों की क्रीड़ा देख रहा था वह महासेनगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र गुप्तसाम्राज्य का उत्तराधिकारी शशांक था । दूसरा बालक उसका छोटा भाई था। माधवगुप्त शशांक की विमाता से उत्पन्न था और अपने बूढ़े पिता का बहुत ही दुलारा, तथा अत्यन्त उग्र और निष्ठुर स्वभाव का था । शशांक धीर, बुद्धिमान, उदार और बलिष्ठ था । युवराज वाल्यकाल से ही सैनिकों का प्रियपात्र था । बालिका चित्रा मंडला के दुर्गपति मृत तक्षदत्त की कन्या और शशांक के सखा नरसिंहदत्त की भगिनी था। तक्षदत्त के मरने पर जब वर्वरों ने संडला- दुर्ग पर अधिकार कर लिया तब उनकी विधवा पत्नी अपने पुत्र और कन्या को लेकर पाटलिपुत्र चली आई। नरसिंह दच का पैतृक दुर्ग सम्राट ने अपने दूसरे सेनापति को भेजकर किसी प्रकार फिर अपने अधिकार में किया । उस समय मंडला, गौड़, मगध और वंग में गुप्त- साम्राज्य के दुर्जय दुर्ग थे। वृद्ध सैनिक और कुमार शशांक अस्त्रागार में बैठे बातचीत कर रहे थे इतने में पास के घर में बहुत से मनुष्यों के पैरों की आहट सुनाई दी। सौनक चौंक पड़ा और बरछा हाथ में लेकर द्वार पर जा खड़ा हुआ। सबके आगे दीपक के प्रकाश में श्वेत वस्त्र धारण किए बूढ़े भट्ट ( भाँट) की मूर्चि दिखाई पड़ी, उसके पीछे राजभवन के बहुत परिचारक और परिचारिकाएँ थीं। कुमार को देख वृद्ध भट्ट ने जय- ध्वनि की । देखते-देखते सबके सब उस घर में आ पहुँचे। बात यह थी कि दोपहर से ही कुमार अस्त्रागार में आ बैठा था, इससे दोपहर के पीछे किसी ने उसे नहीं देखा। चारों ओर खोज होने लगी। जब .
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