पृष्ठ:शशांक.djvu/२५१

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( २३३ ) सेना अपने युवराज को इधर-उधर ढूँढ़ने लगी। चौथे दिन सबेरे दूर पर कलरव और जयध्वनि सुन कर वीरेंद्रसिंह युद्ध के लिए तैयार हुए। वे समझे कि युवराज की जो थोड़ी सी सेना थी वह खेत रही और भास्करवा अब उन पर आक्रमण करने आ रहे हैं। पर जय ध्वनि जब और पास सुनाई पड़ी तब उन्होंने सुना कि सम्राट महासेन- गुप्त के नाम पर जयध्वनि हो रही है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। देखते-देखते युवराज की सेना शिविर में आ पहुँची । साढ़े सात सहस्र कंठों की जय ध्वनि नद के पार तक गूंज उठी। उस पार भास्करवर्मा का सेनापति समझा कि कामरूप की सेना हार गई। वह चटपट अपने साथ की सेना सहित भाग खड़ा हुआ । युवराज के मुँह से युद्ध की सारी व्यवस्था सुन वीरेंद्र सिंह समझ गए कि जय नहीं हुई है, भगवान् ने रक्षा की है। शंकरनद के युद्ध के एक सप्ताह पीछे संवाद आया कि नरसिंह दत्त पदातिक सेना लेकर पहुंच गए हैं और कल तक शिविर में आ जायँगे । नद का जल थमते ही वोरेंद्र सिंह ने उस पार के शत्रु शिविर पर अधिकार किया। नरसिंहदत्त के आगमन का समाचार पाकर युवराज ने अधिकांश सेना लेकर शंकरनद के उत्तर तट पर शिविर स्था!पत किया । दूसरे दिन पहर दिन चढ़ते-चढ़ते पदातिक सेना आ पहुँची और नद पार करके उत्तर तट पर उसने पड़ाव डाला । बार-बार के पराजय और आकस्मिक विपचि से घबरा कर भास्करवर्मा की बची-बचाई सेना तितर-बितर होकर भागी। सेना का छत्रभंग देख उन्होंने बहुत चेष्टा की पर फिर सेना एकत्र न हुई। शंकरनद के युद्ध के एक मास पीछे पचीस सहस्र सेना लेकर भास्करवर्मा युवराज शशांक पर आक्रमण करने के लिये चले । शशांक उस समय भी शंकरनद के तट पर ही जमे रहे । वे कामरूप राज्य पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे थे पर सेना