( २४५ ) सेना की सहायता से उन्होंने एक ग्राम पर अधिकार किया। युद्ध विद्या में अनभ्यस्त ग्रामवासी जिस प्रकार पग पग पर बाधा दे रहे थे उससे यशोधवलदेव ने सोचा कि इस प्रकार तो सैकड़ों वर्ष में भी वंगदेश पर अधिकार न हो सकेगा। यशोधवल इधर इस संकट में पड़े थे कि उधर शंकरनद के युद्ध का संवाद वंगदेश में पहुँचा । विद्रोही सामंत राजा कामरूप की सेना का आसरा देख रहे थे। जब उन्होंने देखा कि अब इधर कामरूप से कोई सहायता नहीं मिल सकती तब वे सब के सब महानायक की शरण में आए । अब रही उनकी प्रजा । बंधुगुप्त, शक्रसेन और जिनेंद्र- बुद्धि की उत्तेजना से वंगदेश के बौद्ध निवासियों ने अधीनता स्वीकार नहीं की । यह देख सामंत राजा बड़े असमंजस में पड़े। उन्होंने अपना अपना प्रदेश और घरबार छोड़ यशोधवलदेव के शिविर में आकर आश्रय लिया। युद्ध छिड़ गया । भास्करवा के पराजित होकर लौट जाने पर भी बंधुगुप्त स्थाण्वीश्वर से सहायता का बचन पाकर युद्ध चलाने लगे। किंतु नेताओं के अभाव से अशिक्षित विद्रोही सेना बार बार पराजित होने लगी। मागध सेना उत्साहित होकर युद्ध करने लगी। गाँव पर गाँव, नगर पर नगर अधिकृत होकर उजाड़ होने लगे । पर बौद्ध प्रजा वशीभूत न हुई। बहुदशी यशोधवलदेव ने सोचकर देखा कि इस प्रकार के युद्ध से कोई फल न होगा। देश को उजाड़ने से न उनका और न सम्राट का कोई लाभ होगा। तब वे सामंत राजाओं की सहा- 'यता से संधि का प्रयत्न करने लगे। संधि न हो सकी । बंधुगुप्त के बहाने से प्रजा ने कहला भेजा कि हम सब लोग तो थानेश्वर की प्रजा हैं, पाटलिपुत्र की अधीनता नहीं स्वीकार कर सकते।
पृष्ठ:शशांक.djvu/२६३
दिखावट