तेरहवाँ परिच्छेद धीवर के घर शीतला नदी के किनारे आम और कटहल के पेड़ों की घनी छाया के बीच एक छोटा सा झोपड़ा है । झोपड़े के गोबर से लीपे हुए आँगन में बैठी एक साँवली युवती जल्दी जल्दी जाल बुन रही थी। उसके सामने बैठा एक गोरा गोरा युवक चकित होकर उसके हाथ को देख रहा था । झोपड़े को देखने से जान पड़ता था कि वह किसी मछुवे का घर है । चारों ओर छोटे बड़े नाल पड़े थे। एक ओर सूखी मछलियों का ढेर लगा था। नदीतट पर उजली बालू के बीच दो तीन छोटी छोटी मछली मारने की नावें पड़ी थीं। आसपास और कोई बस्ती नहीं थों। चारों ओर जल ही जल था; बीच बीच में हरे हरे पेड़ों का झापस था। युवती साँवली होने पर भी बड़ी सुंदरी थी। उसके अंग अंग साँचे में ढले से जान पड़ते थे । युवती बड़े बाँकपन के साथ गरदन टेढ़ी किए दोनों हाथों से झट झट जाल बुनती जाती थी और बीच बीच में कुछ मुसकरा कर चाह भरी दृष्टि से पास बैठे युवक की ओर ताकती भी जाती थी। उस दृष्टिपात का यदि कुछ अर्थ हो सकता था तो केवल हृदय का अनिवार्य वेग, चाह की गहरी उमंग, प्रेम की अवर्णनीय व्यथा ही हो सकता था। युवक की अवस्था बीस वर्ष से ऊपर न होगी। उसका रूप अलौकिक था। वैसा रूप धीवर के घर कभी देखने में नहीं आ सकता । धूर से तप कर उसका शरीर तामरस के समान हो रहा था। मैला वस्त्र लपेटे धूल पर बैठा वह ऐसा देख पड़ता था जैसा राख से लिपटा हुआ अंगारा । सिर उसका मुड़ा हुआ था, सारे अंगों
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