दूसरा परिच्छेद पुरानी कथा कड़कड़ाती धूप से धरती तप रही थी। राजप्रासाद के नीचे की अँधेरी कोठरी में वृद्ध यदुभट्ट भूमि पर एक बिस्तर डाल खा पीकर विश्राम कर रहा था । वह पड़ा पड़ा गुप्त वंश के अभ्युदय की कथा कह रहा था। उसका गंभीर कंठस्वर उस सूनी कोठरी के भीतर गूंज रहा था। सम्राटों की दशा के साथ प्रासाद की दशा भी पलट गई थी। बहुत पहले पाटलिपुत्र के लिच्छवि राजाओं ने गंगा और सोन के संगम पर एक छोटा सा उद्यान बनवाया था। जब गुप्तराजवंश का अधिकार हुआ तब प्रथम चंद्रगुप्त नगर के बीच का राजप्रासाद छोड़ बाहर की ओर उद्यान में आकर रहने लगे। प्रासाद का यह भाग उसी समय बना था । भारी भारी पत्थरों की जोड़ाई से बनी हुई ये छोटी कोठरियाँ बहुत दिनों तक यों ही पड़ो रहीं, उनमें कोई आता जाता नहीं था। मगध राज्य जब सारे भारतवर्ष का केंद्रस्थल हुआ तब समुद्रगुप्त और द्वितीय चंद्रगुप्त के समय में सोन के किनारे अपरिमित धन लगाकर एक परम विशाल और अद्भुत राजप्रासाद बनवाया गया। प्रथम कुमारगुप्त ने उस वृहत् प्रासाद को छोड़ अपनी छोटी रानी के मनो- रंजन के लिये गंगातट पर श्वेत संगमर्मर का एक नवीन रम्य भवन उठवाया। गिरती दशा में गुप्तवंश के सम्राट कुमारगुप्त के बनवाए भवन में ही रहने लगे थे। प्रासाद के शेष भाग में कर्मचारी लोग रहते थे । लगभग कोस भर के घेरे में फैले हुए प्रासाद, उद्यान और आँगन के भिन्न भिन्न भाग भिन्न भिन्न नामों से परिचित थे। जिस घर में यदु- भट्ट रहता था उसे लोग 'चंद्रगुप्त का कोट' कहते थे। इसी प्रकार
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