पृष्ठ:शशांक.djvu/२७१

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(२५३) "मैं क्या जानू ?" "चाहना किसको कहते हैं ?" "मैं क्या जानें "मैं तुझे चाहती हूँ।" "मैं क्या जानूँ ?" "तब तू क्या जानता है ?" "मैं तो कुछ भी नहीं जानता।" भव हँसते-हँसते लोट पड़ी। थोड़ी देर पीछे उसने फिर पूछा "पागल ! तू इतने दिनों तक कहाँ था ?' युवक ने उत्तर दिया “मैं तो नहीं जानता।" "तेरा घर-बार कहाँ है ? तेरा क्या कहीं कोई नहीं था ?" "था तो, भव ! ऐसा जान पड़ता है मेरा कहीं कोई था । पर कहाँ किस अंधकार में, यह मुझे दिखाई नहीं पड़ता।" “पागल ! थोड़ा सोच कर देख-तो कि कहाँ।" "मैं नहीं सोच सकता, सोचने से सिर चकराता है।" "अच्छा, जाने दे।" "भव ! तुम नवीन के साथ घूमने क्यों नहीं गई ?" “मुझे अच्छा नहीं लगता।" "पहले तो बहुत अच्छा लगता था ।" “तू तो पागल है । तेरे मुँह कौन लगे ? अच्छा बोल, तू घूमने चलेगा ?" "चलूँगा।" "तुझे नाव पर धूमना अच्छा लगता है ?" "हाँ, मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुझे ऐसा जान पड़त है 66 66