( २५८) समझ में नहीं आता”। दोनों सैनिकों ने चौंककर पीछे ताका, देखा तो महानायक यशोधवलदेव! उनसे कुछ दूर पर प्रधान प्रधान सेना- नायक सिर नीचा किए खड़े हैं। महानायक के सिर पर उष्णीष नहीं हैं, वे नंगे सिर हैं। उनके लंबे श्वेतकेश वायु के झोंकों से इधर उधर लहरा रहे हैं। देखने से जान पड़ता था कि महानायक को आगे पीछे की कुछ भी सुध नहीं है, वे उन्मत्त से हो गए हैं । बड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा । उसके उपरांत महानायक बोल उठे "सुनो वीरेंद्र)! अभी तक तो मैं पागल नहीं हूँ, पर अब हो जाऊँगा। जब मैं उन्मत्त हो जाऊँ, नंगा होकर नाचने लगूं तब मुझे पाटलिपुत्र ले जाना । अभागे महासेनगुप्त यदि तब तक जीते बचें तो उनसे कहना कि यशोधवलदेव के पाप का प्रायश्चित्त हो गया। प्राचीन धवलवंश का उच्छेद करके भी पाप से उसका पेट नहीं भरा था इससे वह अंधे की लकड़ी और बूढ़े के सहारे को लेकर भाग्य से जूआ खेलने गया था । "सुनो वसुमित्र ! मागध सेना के सामान्य सैनिक भी कह रहे हैं कि वृद्ध यशोधवलदेव लिपुत्र में कौन सा मुँह दिखाएँगे । ठीक है ! मैं अपने वाल्यसखा महाराजाधिराज से उनके पुत्र की मृत्यु की बात कैसे कहूँगा ? ज्योतिषियों के मुँह से अनिष्ट फल सुनकर वे सदा अपने पुत्र की चिंता में दुखी रहते थे । मैं उन्हें बहुत समझा बुझाकर उनके नयनों का तारा खींच लाया। उस समय तो कुछ नहीं सूझता था पर अब मैं देख रहा हूँ कि यशोधवल युद्ध करने नहीं आया था, भाग्य से खिलवाड़ करने आया था"। वीरेंद्रसिंह कुछ कहना ही चाहते थे कि यशोधवलदेव ने फिर कहना आरंभ किया “मुझे कोई समझाने बुझाने न आना । दूधमुहें बालक को लेकर मैं मृत्यु के साथ खेल करने आया था। उस समय मुझे
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