सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/२८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२६६ ) और समारोह से उनका स्वागत करना चाहा, पर महानायक ने कहला भेजा कि महाराजाधिराज मृत्युशय्या पर पड़े हैं ऐसी दशा में किसी प्रकार का उत्सव करना उचित न होगा। इतना सब होने पर भी नगर के तोरणों और राजपथ पर सहस्रों नामरिकों ने इक होकर जयध्वनि द्वारा उनका स्वागत किया। यशोधवलदेव सिर नीचा किए चुपचाप प्रासाद के तोरण में घुसे । तीसरे तोरण पर महाप्रतीहार विनयसेन उनका आसरा देख रहे थे । यशोधवलदेव को उनसे विदित हुआ कि सम्राट के प्राण निकलने में अधिक विलंब नहीं है । वृद्ध यशोधवल के पैर थरथरा रहे थे । वे किसी प्रकार अतःपुर में पहुँचे। लतिका उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ी, पर उनकी आकृति देख सहमकर पीछे हट गई। महानायक ने सम्राट के शयनागार में प्रवेश किया। उन्होंने द्वार ही पर से सुना कि महासेनगुप्त क्षीण स्वर से पूछ रहे हैं "क्यों ? यशोधवल कहाँ है ?" वृद्ध महानायक भवन के भीतर पहुँचे । वे अपने वाल्यबंधु का हाथ थामकर बैठ गए। आँसुओं के उमड़ने से उन्हें कुछ सुझाई नहीं पड़ता था, आवेग से गला भरा हुआ था । सम्राट ने कहा “छि ! यशोधवल, रोते क्यों हो ? यह रोने का समय नहीं है । तुम्हें अब तक देखा नहीं था इसीसे प्राण इस जीर्ण पंजर को छोड़ निकलता नहीं था। सम्राट के सिरहाने महादेवी पत्थर की मूर्ति बनी बैठी थीं। उन्होंने सम्राट का गला सूखते देख उनके मुँह में थोड़ा सा गंगाजल दिया । महासेनगुप्त फिर बोलने लगे "सुनो यशोधवल ! शशांक मरे नहीं हैं । ज्योतिष की गणना कभी मिथ्या नहीं हो सकती । मेरा पुत्र अंग, वंग और कलिंग का एकछत्र सम्राट होगा। उसके बाहुबल से स्थावी- श्वर का सिंहासन काँप उठेगा"। यशोधवलदेव कुछ कहा चाहते थे