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पृष्ठ:शशांक.djvu/२९४

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अठारहवाँ परिच्छेद खोए हुए का पता "तुम कौन हो?" "पागल ! मुझे नहीं पहचानते ? मैं भव हूँ।" "हाँ पहचानता हूँ, तुम भव हो । अनंत कहाँ हैं ?" झोपड़े में एक मैले विस्तर पर पड़ा पूर्व परिचित युवक भव से यही पूछ रहा था। आज तीन दिन पर उसे चेत हुआ है। भव ताड़ का पंखा लिए उसे हाँक रही थी। उसने चकित होकर पूछा "पागल ! अनंत कौन?" "तुम नहीं जानती । विद्याधरनंदी कहाँ है ?" भव समझी कि पागल यों ही बक रहा है। वह अपने पिता को पुकार कर कहने लगी कि "बाबा, बाबा ! देखो तो पागल क्या कह दीनानाथ नदी के किनारे खड़ा देख रहा था कि बहुत बड़ी-बड़ी नावें मेघनाद के उस पार से उसके झोपड़े की ओर चली आ रही हैं। युवक ने फिर कहा "तुम अनंत को बुला दो, मैं युद्ध का संवाद जानने के लिए बहुत घबरा रहा हूँ।" इतने में दीनानाथ के साथ एक वृद्ध और एक युवक झोपड़े में आया । झोपड़े के द्वार पर बहुत से लोगों के आने का शब्द सुनाई पड़ा । भव चकपकाकर ताकती रह गई। युवा पुरुष विस्तर पर पड़े युवक को देखते ही चारपाई के किनारे घुटने टेक कर बैठ गया और कोष से तलवार खींच सिर से लगा कर बोला “महाराजाधिराज की जय हो ! प्रभु, मुझे पहचानते हैं ?"