सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/३०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( २८४ )



अश्वा०-अतिथि होकर हटेंगे कैसे ?

इतने में अश्वारोही के पास बहुत से अश्वारोही और पदातिक आ खड़े हुए। पहरेवाले ने तुरही बजाई । देखते देखते दुर्ग का परकोटा सशस्त्र सैनिकों से भर गया । अश्वारोही ने पूछा “तुम्हारा स्वामी कौन- है ?" उत्तर मिला "महाराज अनंतवर्मा"।

अश्वा०-उन्हें बुला लाओ । पहरे०-अपने दल के लोगों को हटाओ नहीं तो हमलोग आक्रमण करते हैं।

अश्वारोही की आज्ञा से उसके साथ के लोग दूर हट गए। थोड़ी देर में एक वर्मधारी पुरुष ने परकोटे पर आकर पूछा “तुम कौन हो?"

अश्वाo-मैं अतिथि हूँ। तुम क्या यज्ञवर्मा के पुत्र अनंतवर्मा हो ?

"हाँ, पर तुम कौन हो ? तुम्हारा कंठस्वर तो परिचित सा जान पड़ता है। "कंठस्वर से नहीं पहचान सकते ?" "नहीं”। "मुझे पाटलिपुत्र में कभी देखा है" "देखा होगा, पर इस समय तो नहीं पहचानता । “एक दिन थानेश्वर की सेना के शिविर में बंदी होकर पाटलिपुत्र में गंगा के तट पर खड़े थे, ध्यान में आता है ?" "हाँ आता है। कौन, नरसिंह ?"

अश्वारोही ठठा कर हँस पड़ा और उसने धीरे धीरे अपना शिरस्त्राण हटाया। पीठ और कंधे पर भूरे भूरे केश छूट पड़े जो उदय होते हुए सूर्य की किरने पड़ने से झल्झल झलकने लगे। गढ़ के