भाई की स्त्री हो, मुझे छूना मत । आज तुम मगध की पट्टमहादेवी हो, एक भिखारी के पैरों पर पड़ना क्या तुम्हें शोभा देता है ? उठो! वाल्य बंधु का कुशल समाचार पूछो-"
“युवराज ! मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है। मैं कभी ऐसा कर सकती थी ? तुम्हें विश्वास है ?"
"विश्वास करने की इच्छा तो नहीं होती किंतु, चित्रा! अब तुम माधव की अंकलक्ष्मी हो, अब तुम मेरी नहीं हो। तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष मेरा है-मेरे भाग्य का है।"
चित्रादेवी उठ खड़ी हुई। छः वर्ष पर आज दोनों एक दूसरे के सामने हुए हैं । चाँदनी में डूबा हुआ जगत् स्थिर और सन्नाटे में था। झलकते हुए आकाश में बादल के छोटे-छोटे टुकड़े वेग से. दौड़े जा रहे थे। उत्सव का रंग अब धीमा पड़ गया है, कलरव मंद हो गया है, दीपमाला बुझा चाहती है। चित्रादेवी ने कहा "कुमार ! मेरी बात मानो। मुझे एक बार और क्षमा करो। मैं तक्षदत्त की बेटी हूँ, मेरी बात पर विश्वास करो।"
“विश्वास करता हूँ तभी न आया हूँ, चित्रा ! नहीं तो क्यों आता ? मैं क्षमा क्या करूँ। तुम रमणी हो, अनुपम रूपवती हो । तुमने यदि बिना ठौर ठिकाने के मनुष्य का व्यर्थ आसरा न देख एक राजराजेश्वर के गले में वरमाला डाली तो इसमें बुरा क्या किया ?"
“युवराज ! तुमने क्या मुझे ऐसी वैसी समझ रखा है ?"
“ऐसी वैसी नहीं समझता था, तभी न यह फल-
"बस, युवराज ! क्षमा करो। मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है।
"विवाह भी कहीं बाँवकर हुआ है, चित्रा ?"
महादेवी ने दलपूर्वक मेरा विवाह करा दिया ।"
"