"सुनो महादेवि ! अब तुम भी महादेवी हो, बालिका नहीं हो, युवती हो, किसी का हृदय भी कभी कोई वल करके छीन सकता है ? नश्वर शरीर पर वल चल सकता है, पर वल से क्या किसी का मन वश में हो सकता है ?"
“अब एक बार और क्षमा करो, युवराज !"
"क्षमा तो मैं कर चुका हूँ, चित्रा ! यदि क्षमा न करता तो देखने दिखाने न आता"।
"तब फिर ?"
"तब फिर क्या, चित्रा ?"
“एक बार और-"
"अब हो नहीं सकता, चित्रा !"
"मैंने-मैंने सुना-युवराज ! मेरा कोई अपराध नहीं है।"
"छिः चित्रा ! तुम तक्षदत्त की कन्या हो, तुम गुप्तकुल की वधू हो, तुम्हारे मुँह से ऐसी बात नहीं सोहती। कोई सामान्य क्षत्रिय- वधू यदि आचारभ्रष्ट हो जाय तो हो जाय, पर तुम तक्षदत्त की कन्या हो, महासेनगुप्त की पुत्रवधू हो, मगध की राजराजेश्वरी हो-तुम्हारे लिए ऐसी बात उचित नहीं हैं।
“तब फिर"
"तब फिर क्या ? मैं अपनी बात रखने के लिए तुम्हारे पास आया । बात अब पूरी हो गई । अब हे देवि ! शशांक को भूल जाओ, समझ लो कि शशांक सचमुच मर गया। मैं जल के बुलबुले के समान अनंत जलराशि में मिल जाऊँगा, इस अपार जगत् में कोई मुझे ढूढ़े न पाएगा। आशीर्वाद करता हूँ कि तुम सुख से रहो । अब बड़े सुख से मैं मरने जाता हूँ, मन में कोई दुःख नहीं है। दूर देश में ज्ञानशूल्य होकर मैंने इतने दिन अज्ञातवास किया, जब ज्ञान हुआ तब सुना कि