पृष्ठ:शशांक.djvu/३२८

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सहायता न होती तो क्या शशांक आज लौट आता? मेरे मन में तो आता है कि वह अब भी हम लोगों की खोज में होगा । अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है, चटपट यहाँ से चल दो।

बुद्ध०-ऐसे संकट के समय में संघ को निराधार छोड़ पाटलिपुत्र से कैसे भागूं ?

बंधु०-तो क्या यहीं मरोगे ?

बुद्ध०-मरने से मैं इतना नहीं डरता ।

बंधु०-महास्थविर ! बंधुगुप्त भी मरने से नहीं डरता, पर यशो- धवल के हाथों मरना-बाप रे बाप !

बुद्ध०-तो फिर तुम भागा।

बंधु०-कहाँ जाऊँ?

बुद्ध०-सीधे महाबोधि विहार में चले जाओ, वहाँ जिनेंद्रबुद्धि

"अच्छी बात है' कहकर बंधुगुप्त उठ खड़े हुए। बुद्धघोष ने हँस कर कहा “इसी क्षण जाओगे ?"

"इसी क्षण ।"

"अच्छी बात है । भगवान् तुम्हारा मंगल करें।"

बंधुगुप्त मंदिर से निकल पड़े। बुद्धघोष अकेले बैठे रहे | आधी घड़ी भी न बीती थी कि बाहर घोड़ों की टापें सुनाई पड़ी।

बुद्धघोष उठ खड़े हुए। इसी बीच हरिगुप्त, देशानंद और कई नगररक्षा मंदिर के भीतर घुस आए । देशानंद ने बुद्धघोष को दिखाकर कहा “यहाँ महास्थविर बुद्धघोष हैं ।" दो नगररक्षकों ने चट महास्थविर का हाथ पकड़ लिया । हरिगुप्त ने कहा "महास्थिवर बुद्धघोष ! महाराजाधिराज की आज्ञा से राजद्रोह के अपराध में तुम बंदी किए गए।" बुद्धघोष ने कोई उत्तर न दिया । रक्षक उनके हाथ बाँधकर उन्हें मंदिर के बाहर