पृष्ठ:शशांक.djvu/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३१०)


ले गए । हरिगुत ने पूछा “देशानंद ! बंधुगुप्त कहाँ है?" देशानंद ने कहा “संघाराम में होगा ।” सब लोग मंदिर के बाहर हुए ।

आधा दंड बीते भुइँहरे की एक गुप्त कोठरी से एक दुबला पतला बुड्ढा भिक्खु निकला और मंदिर के चारों ओर हूँ ढ़कर मंदिर के बाहर चला। थोड़ी देर में संघस्थविर बंधुगुप्त फिर मंदिर में आए और भुइँहरे में जाकर आमन मार भूमि पर रेखा खींचने लगे। आधी घड़ी के भीतर वही दुबला पतला भिक्खु फिर मंदिर में आने लगा पर भुइँहरे में किसीकी आहट पाकर खड़ा हो गया। मंदिर के द्वार पर मनुष्य की छाया देख बंधुगुप्त काँप उठे। लेखनी रखकर घट उठ खड़े हुए और द्वार की ओर बढ़े। वृद्ध भिक्खु को इसकी कुछ आहट न मिली ।

बंधुगुप्त ने एक फलांग में जाकर वृद्ध का गला धर दबाया और पूलने लगे "तुम कौन ?” वृद्ध बहुत कुछ बल लगाकर छूटने का यत्न करने लगा। इस हाथापाई में उसके सिर की पगड़ी नीचे गिर पड़ी। बंधुगुप्त उल्लास से चिल्ला उठा "अच्छा । शक्रसेन ! अब तो तेरा प्राण लिए बिना नहीं छोड़ता।"

भूखे बाघ की तरह संघस्थविर वृद्ध शक्रसेन के ऊपर चढ़ बैठा वृद्ध हाथ पैर पटकने लगा। इतने में कुछ दूर पर फिर घोड़ों की टाप का शब्द सुनाई पड़ा- बंधुगुप्त पगड़ी से शक्रसेन के हाथ पैर बाँध चट मंदिर से भाग निकला। उसके भागने के कुछ देर पीछे हरिगुप्त ने आकर शक्रसेन का बंधन खोला । शक्रसेन ने कहा "अभी, अभी बंधुगुप्त भागा है।" हरिगुप्त ने घबराकर पूछा “कहाँ ?"

शर्क०-यह तो नहीं कह सकता ।

हरि०-किस ओर गया है ?

शक्र०-यह मैं नहीं देख सका ।

हरि०-कितनी देर हुई ?