( ३१७ ) थे और धीरे धीरे बातचीत करते जाते थे। मंदिर की ओर से एक पथिक उनकी ओर चला आ रहा था। वह उन दोनों को देखते ही जंगल में छिप गया । एक अश्वारोही बोला “आर्य ! बंधुगुप्त का कोई पता न लगा।” दूसरा बोला “पुत्र ! कीर्तिधवल की हत्या का बदला लिए बिना मैं मरूँगा नहीं। जहाँ होगा, जिस प्रकार से होगा उसे पकडू गा अवश्य ।" इतने में पथ के किनारे का एक वृक्ष हिल उठा । उसे देख सम्राट बोल उठे “कौन ?” कोई उत्तर न मिला। सम्राट और यशोधवल झाड़ों में घुस पड़े। थोड़ी दूर बढ़कर उन्होंने देखा कि एक मनुष्य साँस छोड़कर जीर्ण मंदिर की ओर भागा जा रहा है। पल भर में सम्राट ने उसके पास पहुँच उसकी पगड़ी खींची। वह पगड़ी छोड़कर भागने लगा। सम्राट ने चकित होकर देखा कि उसका सिर मुंड़ा हुआ पीछे से यशोधवलदेव बोल उठे "शशांक ! अवश्य यह कोई बौद्ध भिक्खु है । देखना, जाने न पाए।" वह मनुष्य जी छोड़कर मंदिर की ओर भागर जाता था। मंदिर के द्वार के पास पहुँचते पहुँचते यशो- धवलदेव ने उसका वस्त्र जा पकड़ा । वह अपने को सँभाल न सका, भूमि पर गिर पड़ा और कहने लगा “यशोधवल ! मुझे मारना मत, प्राणदाने दो, क्षमा करो।' वृद्ध महानायक चकपकाकर उसकी ओर ताकने लगे। थोड़ी देर में उन्होंने पूछा “तू कौन है ? तूने मुझे कैसे पहचाना?" उसने कोई उत्तर न दिया । इतने में सम्राट भी वहाँ आ पहुँचे। महानायक ने उनसे कहा "पुत्रं ! देखो तो यह कौन है । मैं तो इसे नहीं पहचानता, पर यह मुझे पहचानता है। इसने अभी मेरा नाम लिया था ।” सम्राट उसके पास गए और उसे देखते ही चौंक पड़े। उन्हें चट ध्यान आया कि है।
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