पृष्ठ:शशांक.djvu/३३७

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(३१८) मेघनादनद में इसी व्यक्ति ने मुझपर ताककर बरछा छोड़ा था । अस्त्रों झनकार और योद्धाओं की कलकल के बीच उसका गंभीर कर्कश स्वर सुनाई पड़ा था कि “यही शशांक है, मारो मारो।" सम्राट ने पहचाना कि यही बौद्ध संघ के बोधिसत्वपाद संघस्थविर बंधुगुप्त हैं ! सम्राट ने अस्फुट स्वर से कहा "भट्टारक ! य-य-यही व्यक्ति बंधुगुप्त है।" सुनते ही वृद्ध महानायक की आकृति बदल गई । पल भर में अस्सी वर्ष के बुड्ढे के शरीर में जवानों का सा बल आ गया । हिंसावृत्ति ने प्रवल पड़ कर बुढ़ापे को दूर कर दिया । वृद्ध महानायक का झुका हुआ शरीर तन गया । वे बोले “पुत्र ! अब इस बार-" । शशांक पत्थर की मूर्चि बने चुपचाप खड़े रहे । उन्हें देख बंधुगुप्त बोल उठे “सम्राट-शशांक- क्षमा-मुझे क्षमा करो-मारो मत-यदि मारना ही हो तो मुझे यशो- धवल के हाथ से छुड़ाओ-बुद्धघोष के समान घातकों के हाथ में दे दो-पशु के समान खेला खेलाकर न मारो।" यशोधवलदेव उन्मच के समान ठठाकर हसे और कहने लगे "बंधुगुप्त ! तूने जिस समय कीतिधवल की हत्या की थी उस समय कितनी दया दिखाई थी ?" बंधुगुप्त काँपकर बोला “यशोधवल ! तो तुम जानते हो-"। यशो० -मैं सब जानता हूँ | बंधुगुप्त ! जिस समय मेरा पुत्र घायल होकर अचेत पड़ा था उस समय तूने उसपर कितनी दया दिखाई थी ? बंधु-महानायक ! उस समय मेरे ऊपर भूत चढ़ा था-मैं-मैं- यशो०-जिस समय रक्त बहने के कारण प्यास से तलफकर उसने जल माँगा था उस समय तूने क्या किया था, कुछ स्मरण है ? बंधु०-है क्यों नहीं, यशोधवल । उस समय मैं उनका गरम गरम रक्त शरीर में पोतकर प्रेत के समान नाच रहा था। पर तुम अब क्षमा करो, धवलवंश में धब्बा मत लगाओ।