पृष्ठ:शशांक.djvu/३४०

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( ३२१) कहीं सेवार से ढकी हुई नदीगर्भ में पड़ी होगी और मैं रत्नजटित सोने के सिहासन पर बहुमूल्य वस्त्र आभूषण पहने बैठा हूँ। वही चित्रा, फूल चुनते समय जिसकी कोमल उँगलियां में एक छोटा सा काँटा चुभ जाने से कितनी पीड़ा होती थी, वह कितना व्याकुल होती थी ! जिस समय मैं जल में कूदा था उस समय मुझे कितनी वेदना हुई थी ! उसके हाथ दारुण मानसिक वेदना से शिथिल होकर जिस समय तैरने में अशक्त हो गए होंगे उस समय मृत्यु का आलिंगन करने में उसे कितनी यंत्रणा हुई होगी ! रुके हुए नाले के समान आँसुओं की धारा छूट पड़ी। शशांक की आँखों में धुध सा छा गया। चाँदनी में डूबा हुआ जगत् सामने से हट गया। इसी बीच एक दंडधर दौड़ा दौड़ा आया और सम्राट् का अभि- वादन कर के बोला “देव ! उत्तर-मालव से महाराज देवगुप्त ने एक दूत भेजा है। वह इसी समय महाराजाधिराज का दर्शन चाहता है।" सम्राट कुछ अनमने से होकर बोले "उसे यहीं ले आओ।" दंडधर प्रणाम करके चला गया । दंडधर थोड़ी ही देर में एक वर्मधारी पुरुष को साथ लिए लौट आया । वह सम्राट को अभिवादन करके बोला "महाराजाधिराज ! मालव से महाराज देवगुप्त ने मुझे भेजा है। मैं दिन रात घोड़े की पीठ पर ही चल कर आज दो महीने में यहाँ पहुँचा हूँ।" "क्या संवाद लाए हो?" “संवाद बहुत गोपनीय है।" "तुम बेधड़क कहो । यहाँ पर इस समय जितने लोग हैं सब साम्राज्य के विश्वस्त कर्मचारी हैं।" "महाराज देवगुप्त ने महाराजाधिराज के पास यह कहला भेजा है कि दो महीने हुए कि थानेश्वर में विषमज्वर से महाराज प्रभाकरवर्द्धन की मृत्यु हो गई। २१