सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/३४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३२३ ) पाटलिपुत्र में थानेश्वर की सेना के उद्धत व्यवहार की बात का स्मरण करने के लिए कहा है। शशांक-उनसे कहना कि मुझे सब बातों का स्मरण है, फिर भी मैं अन्याय और अधर्म में प्रवृत्त नहीं हो सकता। दूत-महाराजाधिराज ! शशांक-क्या कहना चाहते हो ? बेधड़क कहो । दूत-महाराजाधिराज महासेनगुप्त के पुत्र हैं; समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त और कुमारगुप्त के वंशधर हैं । गुप्तवश के पूर्व गौरव का ध्यान श्रीमान् के चित्त में सदा बना रहना चाहिए। साम्राज्य की असहाय अवस्था में विश्वासघातकों ने किस प्रकार एक नया राज्य खड़ा कर लिया यह बात किसी से छिपी नहीं है। इतने में महाबलाध्यक्ष हरिगुप्त दौड़े हुए गंगाद्वार से निकलकर आए और दंडधर से पूछने लगे “सम्राट कहाँ हैं ?” उसने उँगली उठाकर दिखाया । मालव के राजदूत, अनंतवर्मा और शशांक चकपका कर उनकी ओर ताकने लगे। उनके मुँह से कोई बात निकलने के पहले ही सम्राट ने पूछा- "महानायक ! क्या है ?" हरि०-महाराजाधिराज ! भारी आपत्ति है। शशांक-क्या हुआ ? इरि०-चरणाद्रि दुर्ग की सारी सेना विद्रोही हो गई है। शशांक -क्या अवंतिवर्मा फिर आ गया ? दूत-महाराजाधिराज ! मौखरिराज अवंतिवर्मा तो प्रतिष्ठान दुर्ग में हैं। शशांक-दूत ! मौखरिराज तो अनंतवां हैं जो हमारे पास खड़े हैं । अवंतिवी तो विद्रोही है।