पृष्ठ:शशांक.djvu/३५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३३३) हूँ।” नायक के हाथ में गरुड़ध्वज थमा कर देखते देखते वह पुरुष अदृश्य हो गया। पल भर में सम्राट ने बड़े समारोह के साथ प्रतिष्ठानदुर्ग में प्रवेश किया। आते ही वे नरसिंह दत्त को ढूंढने लगे। किंतु जिसके उँगली हिलाने से दस सहस्र सेना अपने जी पर खेल गई थी, जिसने प्रतिष्ठान दुर्ग पर अधिकार किया था, उसका कहीं पता न लगा-न दुर्ग में, न शिविर में। सम्राट ने तीसरे प्राकार पर खड़े होकर अँधे हुए गले से अनंतवर्मा को पुकारा 'आज्ञा महाराज ।” "यह उन्हीं का काम है।" "किनका ?" "नरसिहं का । चित्रा के कारण वे मेरा मुँह अब न देखेंगे।" "अनंत !" 66 << ---