पृष्ठ:शशांक.djvu/३५१

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(३३२ ) दुर्ग को इस प्रकार शत्रु के हाथ में पड़ते देख रोष और क्षोभ से अपने जी पर खेल थानेश्वर के सेनानायक तीसरे प्राकार की रक्षा करने लगे। मागध सेना कई बार पीछे हटी। सेनादल को हतोत्साह होते देख मागध नायक सिर नीचा किए खड़े रहे। इतने में फिर वही वर्मधारी पुरुष अकेले प्राकार पर चढ़ने लगा। उसके ऊपर सैकड़ों पत्थर फेंके गए, पर उसे एक भी न लगा। उसने प्राकार पर खड़े होकर जयध्वनि की । उसे ऊपर देख सेनानायक गण लजित होकर अपनी अपनी सेना छोड़ प्राकार के ऊपर दौड़ पड़े। दुर्गरक्षकों ने उन मुट्ठी भर मनुष्यों को ऊपर देख उन्हें पीस डालना चाहा । इतने में बाहर सहस्रों सैनिकों ने एक स्वर से महाराजाधिराज शशांक नरेंद्रगुप्त का नाम लेकर जयध्वनि की। प्राकार के नीचे खड़ी मागध सेना को चेत हुआ। उसने देखा कि प्राकार पर चढ़ने का मार्ग निर्विघ्न है, प्राकार के ऊपर युद्ध हो रहा है। भीषण जयध्वनि करके सेना प्राकार पर चढ़ गई। संध्या होने के पहले ही दुर्ग पर अधिकार हो गया। प्रतिष्ठान दुर्ग के पूर्व तोरण पर खड़ा बावृत पुरुष शिरस्त्राण उतार विश्राम कर रहा था। इसी बीच एक सैनिक ने आकर कहा "महानायक ! सम्राट् दुर्ग में प्रवेश कर रहे हैं ।" वर्मधारी पुरुष ने विस्मित होकर पूछा "वे कब आए " "जिस समय शिविर की सेना ने जयध्वनि की थी उसी समय वे पहुँचे थे ।" "दुर्ग का फाटक खोलने के लिए कहो।" संध्या हो गई थी । सैनिकों ने तापने के लिए स्थान स्थान पर अलाव लगाए थे। वर्मधारी पुरुष ने अपने पास खड़े सेनानायक से कहा "मरनाथ ! तुम इस गरुड़ध्वज को लिए रहो, मैं अभी आता