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पृष्ठ:शशांक.djvu/३५७

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( ३३८) है "क्यों अनंत ? "कलियुग में कहीं कोई द्वद्वयुद्ध करता है " "हानि क्या ?" "आप क्या कह रहे हैं मेरी समझ में नहीं आता।" "इसमें न समझ में आने की कौन सी बात है ?" "प्रभो ! यदि युद्ध में आप घायल हुए तो ?" "घायल छोड़ यदि मैं मारा भी जाऊँ तो इससे क्या ?" "सर्वनाश, महाराज ? मगध देश फिर किसकी छत्रछाया के नीचे रहेगा ?" "अनंत ? सच पूछो तो मैं मरना चाहता हूँ। मृत्यु को बुलाने के लिए ही मैं अकेले राज्यवर्द्धन के साथ युद्ध करने जा रहा हूँ।" "आपको युद्ध करने का काम नहीं, चलिए पाटलिपुत्र लौट चलें । राज्यवर्द्धन अपना कान्यकुब्ज और प्रतिष्ठान लें।" "यह नहीं हो सकता, अनंत ! न जाने कौन ऐसा करने से रोक सा रहा है। राज्यवर्द्धन यदि मुझे कायर ही समझकर संधि का प्रस्ताव मान लेते तो मैं बड़ी प्रसन्नता से उन्हें देश का अधिकार दे कर लौट जाता। मेरे न स्त्री है, न लड़का बाला, राज्य से मुझे कोई प्रयोजन नहीं। माधव राज्य की रक्षा करने में असमर्थ है, वह कभी इतना बड़ा साम्राज्य नहीं सँभाल सकता।" "तब फिर साम्राज्य को भी जाने दीजिए, माधवगुप्त को मगध का राज्य देकर आप वानप्रस्थ ले लें।" "हँसी की बात नहीं है, अनंत ! कल मैं मरूंगा। मेरे मर जाने पर तुम लोग देश में जाकर माधवगुप्त को सिंहासन पर बिठा देना "अछी बात है, तो फिर जैसे उस बार वंगदेश से हमलोग लौटे थे उसी प्रकार इस बार भी लौटेंगे।" -- 6