पृष्ठ:शशांक.djvu/३६६

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(३४७) ."और दूसरा ?" मालती कुछ लजित सी हो गई। उसके मुँह से जो वह कहने जाती थी सहसा न निकल सका। यह देख लतिका बोली "देखो बहिन! मुझसे भी छिपाव रखती हो?" "नहीं बहिन तुमसे क्या छिपाना है ? बात यह थी कि मैं सम्राट शशांक को देखना चाहती थी। लतिका और तरला ठठा कर हँस पड़ी। तरला बोली “तो इसमें संकोच की क्या बात है ? अच्छा यह बताओ कि तुमने सम्राट को जो भर कर देखा कि नहीं। न देखा हो तो मैं जाकर उन्हें यहाँ बुलाए लाती हूँ"। यह कहकर वह चल पड़ी । मालती ने उसे दौड़ कर जा पकड़ा और अपनी ओर खींचने लगी। लतिका ने कहा "तरला! तू सबको इसी प्रकार सताया करती है। तरला ने कहा "घबराभो न, मैं सैन्यभीति को भी अपने साथ लिए आती हूँ"। इस बात पर न जाने क्यों लतिका लजा गई और तरला को मारने दौड़ी। इसो धमाचौकड़ी के बीच एक परिचारिका ने आकर तरला से कहा "आपको गढ़पति बुला रहे हैं। परिचारिका के साथ तरला धीरे धीरे वृद्ध महानायक की कोठरी में गई। यशोधवल आज कुछ अच्छे दिखाई देते हैं। कोठरी में और कोई नहीं है। तरला उनके पास जा खड़ी हुई । वृद्ध महानायक कहने लगे “तरला ! जब से मैंने समरभीति के पुत्र को देखा है मेरे हृदय पर का एक बोझ सा हटा जान पड़ता है। स्वर्गीय समरभीति का वंश प्रतिष्ठा में धवलवंश के तुल्य है। वे मेरे बड़े सच्चे सुहृद थे । जब से मैंने उनका नाम सुना है उनकी वीर मूर्ति मेरी आँखों के सामने नाच रही है। थानेश्वरवालों का बढ़ता हुआ प्रभाव उन्हें असह्य हो गया। मगध साम्राज्य की दुर्दशा वे न देख सके । उन्होंने